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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 121
वर्णन व्यापक रूप में उपलब्ध होता है, जैसे उत्तराध्ययनसूत्र,182 आचारांगसूत्र,183 समवायांगसूत्र,184 स्थानांगसूत्र,185 मूलाचार, 186 तत्वार्थसूत्र, 187 आदि ग्रन्थों में इन धर्मों का उल्लेख हमें प्राप्त होता है, यद्यपि संख्या या क्रम में आंशिक अन्तर मिलता है। जीव स्वभाव से अमर है, लेकिन कर्मवशात् उसका एक शरीर से दूसरे शरीर में शरीरान्त होता रहता है। अपने को अमर करने की अभिलाषा रखकर भी जीव नाशवान् पदार्थों के संग्रह में जुटा रहता है। उन पदार्थों को प्राप्त करने के लिए क्रोध, मान, माया, लोभ, आदि कषायों में रत रहने से उसका संसार-परिभ्रमण समाप्त नहीं होता है। नाशवान् पदार्थों की आसक्ति उसे अमर कैसे बना सकती है। जो स्वयं नाशवान् हैं, वे दूसरों को कैसे अमर बना सकेंगे? अमरता प्राप्ति का मार्ग है- क्षमा, मार्दव, आदि दशविध धर्मों का परिपालन, अतः मुनि-जीवन में इनका पालन परम आवश्यक बतलाया है। उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :१. क्षमा :
क्षमा को आत्मा का सबसे प्रमुख धर्म कहा गया है, क्रोध को दोषों की खान कहा है। क्रोध को उत्पन्न न होने देना एवं उत्पन्न होने पर उसे जीतना, उसका शमन करना क्षमा है। अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुए संसारी जीवों के भीतर राग-द्वेष, क्रोध-मान, आदि कषाएं पलने लगती हैं, इसलिए जब साधक के अन्तर-चेतन में क्रोधरूपी अग्नि जलने लगे, तब उसे क्षमारूपी नीर से शान्त कर देने से आत्मा का निज गुण प्रकट होता है।
वृहत्कल्पभाष्य188 में कहा गया है कि साधु, साध्वियों को परस्पर कलह हो जाने पर तत्काल क्षमायाचना करके उसे शान्त कर देना चाहिए। क्षमा याचना किए बिना गोचरी आदि के लिए जाना, स्वाध्याय करना एवं विहार करना भी नहीं कल्पता है। क्षमायाचना करने वाला साधु आराधक और न करने वाला विराधक माना जाता है। जैन-परम्परा में क्षमागुण को मानव का प्राण कहा गया है, इसलिए प्रतिवर्ष क्षमापना-पर्व के रूप में मैत्रीदिवस मनाया जाता है। उस दिन सभी
182 उत्तराध्ययनसूत्र- ६/५७. 183 आचारांगसूत्र - १/६/५. 184 समवायांगसूत्र - १०/१ 185स्थानांगसूत्र - १०/१४. 186 मूलाचार - ११/१५. 187 तत्वार्थसूत्र - ६/६.
वृहत्कल्पभाष्य - ४/१५.
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