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122 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री साधर्मिक बन्धु एवं श्रमणसंघ मिलकर परस्पर क्षमायाचना करते हैं। वे कहते हैं"मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूँ और सभी प्राणी भी मुझे क्षमा करें। मेरी सभी प्राणियों से मित्रता है। किसी से मेरा वैर नहीं है।" उत्तराध्ययन में कहा गया है'मेत्ति भूएसु कप्पए', अर्थात् सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव धारण करें।189
संवेगरंगशाला में साधक को यह स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि समाधिमरण ग्रहण करने के पूर्व वह सर्वजीवों से क्षमायाचना करे।190 ५. मार्दव :
मान पर विजय प्राप्त करना, विनम्रवृत्ति रखना मार्दव कहलाता है। संवेगरंगशाला में विनय के पाँच प्रकारों का उल्लेख किया गया है- प्रथम ज्ञानविनय, दूसरा दर्शनविनय, तीसरा चारित्रविनय, चौथा तपविनय एवं पाँचवाँ उपचारविनय है। उसमें ज्ञानविनय के आठ भेद- काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिह्नवण, व्यंजन, अर्थ और तदुभय कहे गए हैं। 197
निःशंकित, निष्कांक्षित, आदि आठ प्रकार के दर्शनविनय 192 एवं प्रणिधानपूर्वक पाँच समिति और तीन गुप्तियों में आश्रित होकर उद्यम करना, वही आठ प्रकार का चारित्रविनय है। 195 तप में उद्यम करना तपविनय है 194 एवं औपचारिकविनय कायिक, वाचिक और मानसिक रूप से तीन प्रकार का है।195
इस तरह विनय के अनेक भेदों को जानकर आराधना के अभिलाषी साधक को विनयधर्म का आचरण करना चाहिए। विनय से विद्या प्राप्त होती है, विनय लक्ष्मी का मूल है, समस्त सुखों का मूल है, निश्चय से तो विनय धर्म का मूल है, तथा विनय कल्याणकारी-मोक्ष का भी मूल है। विनयरहित सारा अनुष्ठान निरर्थक है। अभिमान से विनय नष्ट होता है। मान-कषाय के उपशांत होने पर ही मार्दव (विनम्रता) धर्म प्रकट होता है। अभिमान उत्पन्न होने के आठ कारण होने से मान के आठ भेद कहे गए हैं - जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपमद, ज्ञान (श्रुत) मद, लाभमद, और ऐश्वर्य (प्रभुत्व) मद। व्यक्ति जिस वस्तु का
उत्तराध्ययनसूत्र - ६/२. संवेगरंगशाला, ४२४३-४२८०/५४९०-५४६६/५५००-५५१०. संवेगरंगशाला, गाथा - १५६१. संवेगरंगशाला, गाथा - १५६२. संवेगरंगशाला, गाथा - १५६३.
संवेगरंगशाला, गाथा - १५६४. 195 संवेगरंगशाला, गाथा - १५६५
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