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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 119
करे। इस तरह भिक्षुकाल एवं अकाल का विशेष ध्यान रखते हुए भिक्षा के लिए जाए। (४) आदान-भण्ड-निक्षेपण-समिति :
जैसे मुनि को चलते समय, बोलते समय एवं आहार लेते समय- इस तरह प्रत्येक कार्य में विवेक रखने को कहा गया है, वैसे ही चौथी समिति में वस्तुओं को उठाते एवं रखते समय भी सावधानी एवं विवेक रखने का निर्देश दिया गया है, इसे ही आदान-भण्ड-निक्षेपण-समिति कहते हैं। आदान, अर्थात् उठाना, लेना एवं निक्षेपण, यानी वस्तु को रखना- इस तरह वस्तु को अच्छी तरह से देखकर एवं प्रमार्जन करके ग्रहण करे या रखे, जिससे मुनि-जीवन हिंसा से बच सके। (५) उच्चार-प्रस्रवण-समिति :
___मल-मूत्र आदि अनावश्यक वस्तुएँ ऐसे स्थान पर विसर्जित करना, जिससे जीवों का घात न हो और न जीवोत्पत्ति हो तथा दूसरों को घृणा या कष्ट न हो। उत्तराध्ययन में मुनि के लिए निम्न परिहार्य वस्तुएँ बताई गई हैंमल-मूत्र, कफ, नाक एवं शरीर का मैल, अनावश्यक आहार, पानी, अनुपयोगी वस्त्र एवं मुनि का मृत शरीर। भिक्षुक इन सब परिहार करने योग्य वस्तुओं को विवेतापूर्वक उचित स्थानों पर ही विसर्जित करे।
आचारांगसूत्र78 में मल-मूत्र के परिहार हेतु दो निषिद्ध स्थान बताए गए हैं- १. व्रत-भंग की दृष्टि से और २. लोकापवाद की दृष्टि से। व्रत भंग की दृष्टि से मुनि नाली, पाखाने, जीव-जन्तु युक्त प्रदेश (स्थान) में मल-मूत्र आदि का विसर्जन न करे, क्योंकि उससे जीवों की हिंसा होने से अहिंसाव्रत भंग होता है। लोकापवाद की दृष्टि से भोजन पकाने के स्थान, सभागृह, देवालय, उपवन, प्याऊ, जहाँ मनुष्यों का आवागमन होता हो, इत्यादि स्थानों में मुनि को मल-मूत्र आदि का विसर्जन नहीं करना चाहिए, इससे जिनशासन की अवहेलना होती है। इस प्रकार मुनि को मल-मूत्र का विसर्जन करते समय प्रासुक भूमि को देखकर सावधानीपूर्वक इन्हें विसर्जित करना चाहिए।
" उत्तराध्ययनसूत्र - २४/१५. 'आचारांगसूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अध्ययन १०
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