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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 111
मानव संसार का सम्पूर्ण धन प्राप्त नहीं कर सकता है। यदि सम्पूर्ण धन की प्राप्ति हो भी जाए, तो उसे वह भोग नहीं सकता। यदि एक बार वह भोग भी ले, तो भी उसके मन की तृप्ति नहीं होती है, क्योंकि लोभी जीव सारे जगत् से भी तृप्त नहीं होता है। कहा भी है कि लोभ से लोभ बढ़ता है।
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इस सम्बन्ध में ग्रन्थकार का कहना है कि चोरी करने से जीव - हिंसा का दोष लगता है। जो जिसके धन की चोरी करता है, वह उसके प्राणों का भी हरण करता है। व्यक्ति के पास धन होने पर वह जीता है और धन के लिए तो प्राण भी दे देता है, इस तरह वह धन को नहीं छोड़ता है एवं धन के पीछे सारे परिवार की भी हिंसा होती है; इसलिए जीवदयारूपी परमधर्म को प्राप्त कर मानव को अधम अदत्त - ग्रहण नहीं करना चाहिए । शुद्ध चारित्र को पालनेवाला (मुनि) एक तिनका भी अदत्त - ग्रहण करने से तृण के समान तुच्छ एवं चोर के समान अविश्वसनीय बन जाता है।
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अदत्त ग्रहण से चोर की दशा का विवेचन करते हुए कहा है कि चोर हमेशा चोरी पकड़े जाने की शंका से भयभीत रहता है, निद्रा भी नहीं ले सकता है, हरिण के समान सर्वत्र देखता हुआ भय से कांपते हुए भागता फिरता है । चूहे की आवाज से भी कांपने लगता है। वध, बन्धन, आदि पीड़ाएँ सहन करता है, परभव में शोक प्राप्त करता है; इस तरह अपना आत्मसम्मान खोकर मृत्यु को प्राप्त करता है, परलोक में भी नरक में अपना स्थान बनाता है तथा संसार में अनंतकाल तक परिभ्रमण करता है। इस तरह मुनि को परधन ग्रहण से उत्पन्न होने वाले दोषों को जानकर, उसका त्याग करने के लिए तत्पर बनना चाहिए । ब्रह्मचर्य महाव्रत :
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संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार कहते हैं- हे मुनि ! तू स्त्री के प्रति आसक्ति से रहित होकर एवं नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्ति से सुविशुद्ध रहते हुए, तू ब्रह्मचर्य की रक्षा कर। यह जीव ही ब्रह्म है, पर देह की चिन्ता से रहित जो साधु भी स्व में ही प्रवृत्ति करता है, उसे ब्रह्मचर्य कहा है। आगे ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों का उल्लेख करते हैं- वसतिशुद्धि, सराग कथात्याग, आसन का त्याग, अंगोपांगादि को रागपूर्वक देखने का त्याग, दीवार या परदे के पास खड़े होकर स्त्री के विकारी शब्दादि सुनने का त्याग, पूर्वक्रीड़ा की स्मृति का त्याग, प्रणीत
150 संवेगरंगशाला, गाथा ७६४५ / ७६४७ 150 संवेगरंगशाला, गाथा ७६४५/७६४७ संवेगरंगशाला, गाथा ७६५२ / ७६६०
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