________________
116 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री में एवं अपरिग्रहविरमण व्रत की चर्चा के साथ ही रात्रिभोजन के निषेध का भी उल्लेख मिलता है।
रात्रिभोजन क्यों नहीं करना चाहिए, इसे स्पष्ट करते हुए दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि रात्रि में पृथ्वी पर सूक्ष्म त्रस एवं स्थावर जीव व्याप्त रहते हैं, अतः रात्रिभोजन में उनकी हिंसा से नहीं बचा जा सकता है। इसी कारण साधु को रात्रिभोजन का निषेध है। इस प्रकार अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए साधु रात्रिभोजन का आजीवन परित्याग करता है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन164, सूत्रकृतांग165, पद्मपुराण166, पुरुषार्थसिद्धयुपाय167 आदि में भी रात्रिभोजन-निषेध का उल्लेख मिलता है। अष्ट प्रवचनमाता (पाँच समिति और तीन गुप्ति) :
पूर्वोक्त महाव्रतों के रक्षण एवं उनकी परिपुष्टि करने के लिए जैन परम्परा में पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का विधान है। इन्हें अष्टप्रवचन-माता भी कहा जाता है। ये आठ गुण श्रमण-जीवन का संरक्षण उसी प्रकार करते हैं, जैसे माता अपने पुत्र का संरक्षण करती है, इसीलिए इन्हें माता कहा जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र एवं भगवतीआराधना में भी पाँच समिति और तीन गुप्तियों को अष्टप्रवचनमाता के नाम से अभिहित किया गया है। 108 श्रमणधर्म निवृत्तिप्रधान है। श्रमण-साधना के दो पक्ष माने गए हैं-प्रथम तीन गुप्तियाँ, जो श्रमण-जीवन की साधना के निषेधात्मक पक्ष को प्रस्तुत करती हैं। वे यह बताती हैं कि क्या नहीं करना चाहिए? दूसरे पाँच समितियाँ उसके विधेयात्मक पक्ष प्रस्तुत करती हैं, ये पाँच समितियाँ पाप-प्रवृत्तियों से बचने के लिए हैं। मुनि-जीवन में की जाने वाली इन प्रवृत्तियों को समिति कहते हैं। ये पाँच समितियाँ महाव्रतों की रक्षा और पालन में सहायक होने से साधु-आचार का मुख्य अंग है। श्रमणजीवन में सम्यक् रूप से संयम का निर्वाह हो सके, उसके लिए जो क्रियाएँ की जाती हैं, उनको विवेकपूर्वक सम्पादित करना ही समिति है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार समितियाँ संयमी जीवन की प्रवृत्ति के लिए है। समितियाँ पाँच हैं :- १. ईर्या
163 दशवकालिकभाष्य - ६/२३. 164 उत्तराध्ययनसूत्र - १६/३०, ३०/२. 10 सूत्रकृतांग, १/६/२८. 166 पद्मपुराण - प्रभासखण्ड; उद्धृत श्राद्ध दिनचर्या. 167 पुरुषार्थसिद्धयुपाय - १३२. 168 (अ) उत्तराध्ययनसूत्र - २४/८, (ब) भगवतीआराधना गाथा, ११७६.
उत्तराध्ययनसूत्र - २४/३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org