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68 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री की प्राप्ति के लिए उपादेय में प्रयत्न करना चाहिए। बिना प्रवृत्ति किए अकेला ज्ञान फल प्रदान नहीं कर सकता है, इसलिए क्रियावादियों का कहना है “क्रिया ही फलदायी है, ज्ञान नहीं।" जैसे प्यासा व्यक्ति पानी को देखने के पश्चात् भी जब तक पीने आदि की क्रिया में प्रवृत्ति नहीं करेगा, तब तक उसे तृप्तिरूपी फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है, व्यक्ति के सम्मुख इष्ट भोजन पड़ा हो और स्वयं क्षुधा से पीड़ित भी हो, परन्तु स्वयं के हाथ हिलाए बिना और मुंह को चलाए बिना उस पुरुष का पेट नहीं भर सकता है, बल्कि वह भूख से मर सकता है। यदि अति विद्वान् (पण्डित) भी प्रतिवादी को तुच्छ मानकर वाद के लिए राजसभा में गया हो, किन्तु सभा में कुछ भी नहीं बोले, तो वह भी धन एवं प्रशंसा को प्राप्त नहीं कर सकता है।
इस प्रकार इहलोक68 एवं परलोक69 के कल्याण हेत आसेवन, अर्थात आचरणरूप शिक्षा जरूरी है। विधिपूर्वक कार्य करने से ही फल की प्राप्ति हो सकती है, क्योंकि भगवान् को भी केवलज्ञान के बाद मोक्ष की प्राप्ति हेतु पहले शैलेशीकरण की क्रिया करनी पड़ती है। इस प्रकार ज्ञान के साथ क्रिया आवश्यक होती है। आसेवन-शिक्षा के बिना ग्रहण-शिक्षा सार्थक नहीं होती है। जानने के साथ जीना आवश्यक है। ज्ञान (ग्रहण-शिक्षा) के बिना क्रिया (आसेवन-शिक्षा) अन्धी होती है और क्रिया (आसेवन-शिक्षा) के बिना ज्ञान पंगु है, अर्थात् उसकी उपयोगिता शून्यवत् है, अतः ग्रहण-शिक्षा, अर्थात् ज्ञान और आसेवन-शिक्षा, अर्थात् क्रिया के सहयोग से ही आत्मोपलब्धि सम्भव है। ३. ज्ञान एवं क्रिया के उभय पक्षों की परस्पर सापेक्षता :
संवेगरंगशाला के प्रस्तुत द्वार में ग्रहण-शिक्षा (ज्ञान) और आसेवन-शिक्षा (क्रिया) के विवेचन के पश्चात् तदुभय-शिक्षा, अर्थात् ज्ञान एवं क्रिया का समन्वय करते हुए यह बताया गया है कि ज्ञान-नय और क्रिया-नय के द्वारा उभय पक्षों की कही हुई युक्तियों को सुनकर तथा अपने-अपने स्थान पर उनकी युक्तियों के महत्व को जानकर व्यक्ति के मन में संशय उत्पन्न होने लगता है और उस संशय के कारण ज्ञान और क्रिया के विषय में सत्य क्या है? इसका पता लगाना उसके लिए कठिन हो जाता है, जैसे- एक और खिले हुए केतकी के पुष्प एवं दूसरी
7 किरिय ज्जिय फलजणणी नो नाणं संजमऽत्यविसयाणाविन्नाया वि सुनिउणं, न नाणमेत्ता सुही होइ।। संवेगरंगशाला, गाथा १४३५ ० अइपंडियों वि वाई, आहसिय परं गतो निवसभाए।वयणमवावारिन्तो, न लहइ अत्थं सलाहं च।। संवेगरंगशाला, गाथा १४३८. 69 संवेगरंगशाला, गाथा १४३-१४४६.
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