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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 89
आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है कि जिस मानव ने दिव्रत को धारण कर लिया है, उसने जगत् पर आक्रमण करने वाले लोभरूपी समुद्र को आगे बढ़ने से रोक दिया है। दिशापरिमाण-व्रत के पाँच अतिचार :
१. उर्ध्वदिशा-परिमाणातिक्रम २. अधोदिशा-परिमाणातिक्रम ३. तिर्यक्दिशा-परिमाणातिक्रम ४. क्षेत्रवृद्धि एवं
५. स्मृतिभ्रंश। ७. उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत :- जो वस्तु एक बार उपभोग में आती है, उसे उपभोग कहते हैं और पुनः-पुनः काम में आने वाली वस्तु परिभोग कहलाती है। उपभोग और परिभोग में आने वाली वस्तुओं की मर्यादा को निश्चित करना उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत है।
श्राद्धदिनचर्या ६५ में इस व्रत के दो भेदों का उल्लेख है- १. भोजन-सम्बन्धी एवं २. कर्म-सम्बन्धी। भोजन के सम्बन्ध में गृहस्थ उपासक द्वारा बाईस अभक्ष्य, बत्तीस अनन्तकाय के त्याग का वर्णन है। इसमें यह कहा गया है कि जगत् में भोगोपभोग की वस्तुएँ अपरिमित हैं, अतः श्रावकों को उसका परिमाण करना चाहिए, उत्सर्ग-मार्ग से तो प्रभुशासन को समर्पित श्रावकों को अचित्तभोजी होना चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं हो सकता हो, तो अन्त में सचित्त आदि द्रव्य का परिमाण निर्धारित करना चाहिए। इसमें सामान्य रूप से श्रावक को निम्न चौदह नियम तो अवश्य करने का उल्लेख है- १. सचित्त २. द्रव्य ३. विकृ ति ४. उपानह ५. ताम्बू ६. वस्त्र ७. पुष्प ८. वाहन ६. शय्या १०. विलेपन ११. ब्रह्मचर्य १२. दिशागमन १३. स्नान और १४. भक्तपान। इन चौदह नियमों को धारण करने से निरुपयोगी भोग के अविरतिजन्य पाप से बचा जा सकता है।
- उपासकदशांगसूत्र के अनुसार गृहस्थ-साधक को उपभोग-परिभोग की निम्न वस्तुओं का परिमाण और प्रकार निश्चित करना होता है- १. उद्वद्रवणिका-विधि २. दन्तधावन-विधि ३. फल-विधि ४. अभ्यंगन-विधि ५. उद्वर्तन-विधि ६. स्नान-विधि ७. वस्त्र-विधि ८. विलेपन-विधि ६. पुष्प-विधि
94 जगदाकृममाणस्य प्रसरल्लोभवारिधेः। स्खलनं विदधे तेन, येन दिग्विरतिः कृता।। योगशास्त्र ३/३ 95 श्राद्धदिनचर्या ५४-६१. 46 उपासकदशा १/२२-३८.
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