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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 87
३. अस्तेयाणुव्रत : - इस व्रत में वस्तु के मालिक की आज्ञा के बिना वस्तु आदि ग्रहण करने को वर्ज्य माना गया है। भोगों के प्रति आसक्ति के कारण मानव किसी दूसरे के घर में चोरी करता है, जेब काटता है, अतः गृहस्थ साधक को इस दूषित प्रवृत्ति से बचने के लिए अस्तेयव्रत की सुरक्षा के लिए अनावश्यक आवश्यकताओं को कम करने का निर्देश दिया गया है।
अस्तेयव्रत के पाँच अतिचार :
१. चोरो की
वस्तु खरीदना
३. शासकीय नियमों का अतिक्रमण तथा कर - अपवंचन
४. माप-तौल की अप्रामाणिकता एवं ५. वस्तुओं में मिलावट
२. चौर्यकर्म में सहयोग देना
करना।
४. स्वपत्नी - संतोष व्रत :- ब्रह्मचर्य मानव जीवन के उत्थान का मेरुदण्ड है। मोक्षमार्ग की साधना के लिए ब्रह्मचर्य की साधना आवश्यक मानी गई है। गृहस्थोपासक की काम - प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने हेतु इस व्रत का विधान किया गया है। इसमें गृहस्थ श्रावक परस्त्री के साथ सहवास का सर्वथा परित्याग करता है और स्वस्त्री के साथ भी काम सेवन की मर्यादा निश्चित करता है। स्वदारा - संतोषव्रत में किसी भी प्रकार की स्वच्छन्दता नहीं होती है। साधक को अपने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए विलासपूर्ण वस्त्र, आभूषण, मादक वस्तुओं, गरिष्ठ एवं तामसिक पदार्थों के सेवन से बचना चाहिए ।
स्वपत्नी - संतोषव्रत के पाँच अतिचार :
9.
अल्पवय की विवाहिता स्त्री से, अथवा समय-विशेष के लिए ग्रहण की गई स्त्री से, अर्थात् वेश्या आदि से सम्भोग करना ।
२. अविवाहित स्त्री, जिसमें परस्त्री और वेश्या भी समाहित है, उससे यौन-सम्बन्ध स्थापित करना ।
३. अप्राकृतिक साधनों से काम-वासना को सन्तुष्ट करना, जैसेहस्त-मैथुन, गुदा-मैथुन, समलिंगी-मैथुन, आदि।
४.
पर- विवाहकरण, अर्थात् स्वसंतान के अतिरिक्त दूसरों के विवाह सम्बन्ध करवाना।
५.
विषयभोग की तीव्र आसक्ति होना ।
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