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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 69
ओर अर्द्ध विकसित मालती की कली को देखकर उसके गन्ध में आसक्त बना भौंरा आकुल हो जाता है।
प्रस्तुत कृति में गुरु अपने शिष्य को ग्रहण-शिक्षा और आसेवन-शिक्षादोनों को सापेक्षदृष्टि से समझाते हुए कहते हैं कि ये दोनों ही शिक्षा के मूल तत्व हैं, ज्ञान के बिना क्रिया सम्यक नहीं होती और आसेवन-शिक्षा के बिना ग्रहण-शिक्षा भी सफल नहीं होती है। आगमों के ज्ञान के आधार पर की गई प्रवृत्ति ही सम्यक् प्रवृत्ति है तथा ज्ञानपूर्वक जो क्रिया की जाती है, वहीं मोक्ष को प्राप्त करा सकती है। दूसरी तरफ, जो तप, संयम तथा योग द्वारा क्रिया को वहन नहीं कर सकता है, वह श्रुतज्ञान में प्रवृत्तिवाला भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है। संवेगरंगशाला में इस बात को निम्न दृष्टान्त से समझाया गया है '
जैसे दावानल को देखता हुआ भी पंगु व्यक्ति जलता है और दौड़ता हुआ भी अन्धा होने से जलता है, वैसे ही क्रियारहित ज्ञान और ज्ञानरहित क्रिया को भी निष्फल कहा गया है।
ज्ञान और क्रिया- दोनों का संयोग होने से ही फल की प्राप्ति होती है। कहा भी जाता है कि जैसे- एक चक्र से रथ नहीं चलता है तथा अन्ध और पंगु दोनों का परस्पर संयोग होने से वन से निकलकर सुरक्षित रूप से नगर में पहुँच सकते हैं, क्योंकि ज्ञान को नेत्र के समान कहा गया है तथा क्रिया को चलने की प्रवृत्ति के समान। दोनों का समन्वय होने से ही शिवपुर की प्राप्ति सम्भव है। यही बात "विशेषाश्वयकभाष्य"13 में गाथा क्रमांक ११५६ में मिलती है। डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ “जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२"4 में इसका विस्तार से उल्लेख किया है।
__ अन्त में यह कहा गया है कि साधक को प्रथम अपने लक्ष्य को जानकर, फिर लक्ष्य के अनुरूप क्रिया करनी चाहिए।
70 संवेगरंगशाला, गाथा १४४७-१४५३.
'संवेगरंगशाला, गाथा १४५४. -संयोगसिद्धिए फल वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ.अंधो य पंगु य वणे समेच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा।। संवेगरंगशाला, गाथा क्रं.-१४५५. 75 विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ११५६. " जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२, पृ. ३१-३२
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