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76 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
चतुर्विंशतिस्तव ३. वन्दन ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग और ६. प्रत्याख्यान, 84 किन्तु परवर्ती जैन-आचार्यों ने श्रावक के षट् कर्तव्यों का उल्लेख किंचित् भिन्न प्रकार से किया है, उनके अनुसार षट् कर्त्तव्य निम्न हैं - १. देवपूजा २. गुरु सेवा ३. स्वाध्याय ४. संयम ५. तप और ६. दान। जहाँ तक संवेगरंगशाला का प्रश्न है, इसमें इस प्रकार से श्रावक के षटावश्यकों या षट्कर्तव्यों का उल्लेख तो हमें नहीं मिलता है, किन्तु श्रावक को अपने स्वोपार्जित धन का उपयोग किन क्षेत्रों में करना चाहिए, इसकी चर्चा के प्रसंग में निम्न दस स्थानों का वर्णन किया गया है - १. जिनभवन का निर्माण २. जिनबिम्ब का निर्माण ३. जिनपूजा ४. जिनागम संरक्षण ५. साधुवर्ग की सेवा ६. साध्वीवर्ग की सेवा ७. श्रावकवर्ग की सेवा ८. श्राविकावर्ग की सेवा ६. पौषधशाला निर्माण एवं १०. जिनदर्शन की प्रभावना।
चाहे श्रावक के षट्कर्तव्यों का निर्देश संवेगरंगशाला में एक स्थान पर उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु विभिन्न प्रसंगों में जिनपूजा, गुरुजनों की सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान के उल्लेख हमें प्रकीर्ण रूप से मिल जाते हैं। उदाहरणार्थ- श्रावक को स्वद्रव्य के व्यय करने के लिए जो दस स्थान बताए गए हैं, उनमें जिनपूजा और गुरुजनों की सेवा का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार जिन-आगम-संरक्षण की चर्चा के प्रसंग में स्वाध्याय करने और करवाने का निर्देश भी उपलब्ध होता है। संयम और तप के उल्लेख तो समाधिमरण ग्रहण करने की पूर्व भूमिका के रूप में प्राप्त होते ही हैं, जहाँ तक दान का प्रश्न है, दान के दस क्षेत्रों के उल्लेख में इसका निर्देश हुआ ही है। मात्र यही नहीं, श्रावक की दिनचर्या के उल्लेख में स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि वह किस प्रकार प्रार्थना करके मुनिजनों को आहार दान करे। इसी प्रकार प्रथम परिकर्मद्वार के अनियतविहार नामक उपद्वार में मुनिजनों को किस प्रकार वसति प्रदान करना चाहिए, इसका भी उल्लेख है, साथ ही मुनिजनों को वसति, अर्थात् रहने का स्थान प्रदान करने के क्या लाभ हैं, इसकी चर्चा भी गाथा क्रमांक २२३० से लेकर २३१० तक की गई है और फिर वसति-दान के सम्बन्ध में कुरुचन्द्र की कथा भी प्रस्तुत की गई है।
पुनः, समाधि की आराधना के प्रसंग में संयम और तप की साधना का स्पष्ट निर्देश भी मिलता है। इस प्रकार संवेगरंगशाला में प्रकारान्तर से षट् कर्तव्यों का उल्लेख मिल जाता है।
84 जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२, पृ.-३१६ 8 जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२, पृ.-३६२
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