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20 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
तृतीय कालक्षेप-प्रतिद्वार में पौषधशाला का स्वरूप एवं धर्म करने के लिए पौषधशाला कहाँ बनाए? कैसी बनाए? इसका सुन्दर प्रतिपादन है। फिर उपासक गृहस्थ की बारह प्रतिमाओं के स्वरूप का निर्देश करके इसमें पहले दर्शन-प्रतिमा का स्वरूप बताते हुए मिथ्यात्व के विषय पर अन्धों की कथा का वर्णन है, प्रतिमाधारी श्रावक यदि अन्त में प्रव्रज्या ग्रहण न कर सकता हो, तो स्वधन से, अथवा शक्ति नहीं होने पर साधारण द्रव्य से भी जिनमन्दिर, जिनबिम्ब (जिनप्रतिमा), आदि का जीर्णोद्धार कराए, इसका उल्लेख है। इस ग्रन्थ में प्रसंगानुसार, साधारण द्रव्य खर्च करने के दस स्थान बताए गए हैं। (१) जिन बिम्ब (२) जिन मूर्ति यदि जीर्ण-शीर्ण हो; तो कहाँ, किस तरह से उसका उद्धार करना एवं स्थानान्तर करने की स्थिति में उसकी लुप्तप्रायः विधि का वर्णन है, साथ ही जीर्णोद्धार में होती हुई अतिप्रवृत्ति आदि के सम्बन्ध में हितकारी जानकारी का विस्तृत वर्णन है। इसके पश्चात् (३) जिनपूजा (४) आगम-ग्रन्थ (५) साधु (६) साध्वी (७) श्रावक (८) श्राविका (E) पौषधशाला और (१०) जिनशासन के कार्य - इन दस स्थानों में साधारण द्रव्य का उपयोग करने के लिए उपयोगी एवं प्रशस्त विधि बताई गई है।
चतुर्थ पुत्र-प्रतिबोध-प्रतिद्वार में दीक्षा की अनुमति लेने के लिए पुत्र को मोह से मुक्त करने हेतु कैसा बोधप्रद उपदेश देना चाहिए, इसका तथा दीक्षार्थी की कुटुम्ब के प्रति क्या जवाबदारी होती है, दीक्षा का क्या महत्व है, दीक्षार्थी की क्या योग्यता होती है, आदि का वर्णन है। आगे पाचवें सुस्थितघटना-प्रतिद्वार में सद्गुरु की प्राप्ति एवं संयम ग्रहण करने के लिए उनसे की गई प्रार्थना का प्रतिपादन है। छठवें आलोचना प्रतिद्वार में आलोचना के स्वरूप का निर्देश है।
सातवें कालज्ञान-प्रतिद्वार के अन्तर्गत अनशन करने वाले सशक्त या असशक्त तथा रोगी या निरोगी साधक का छट्यस्थ के द्वारा आयुष्य को जानने की विविध विधियों का उल्लेख है। इस प्रसंग में (१) देवता (२) शकुन (३) शब्दश्रवण (४) छाया (५) नाड़ी (६) निमित्त (७) ज्योतिष (८) स्वप्न (६) रिष्ट (मंगल) (१०) मंत्रप्रयोग एवं (११) विद्या - ऐसे ग्यारह उपायों का सुन्दर वर्णन किया गया है। आठवें अणसनस्वीकार-प्रतिद्वार में अनशन स्वीकार करने वाले गृहस्थ अथवा साधु के परिणाम कैसे होना चाहिए, इसका सुन्दर वर्णन है। इस तरह संवेगरंगशाला में नौवें प्रतिद्वार के आठ उपद्वारों का गाथा क्रमांक २४८४ से ३३७६ तक विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। (१०) दसवें त्यागद्वार के अन्तर्गत गृहस्थ को द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव सम्बन्धी ममत्व के त्याग करने का निर्देश है एवं इसमें साधु को आलोचना आदि
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