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44 इस तरह सम्यक् चारित्र के भेदों का प्रतिपादन स्थानांग
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सूत्र एवं तत्वार्थ ं सूत्र में भी उपलब्ध होता है। इससे यह फलित होता है कि सम्यक्चारित्र के आचरण से व्यक्ति बाह्य-संयोगों के ममत्व को त्यागकर समत्व की ओर अग्रसर होता है तथा भौतिकता से आध्यात्मिकता की दिशा में बढ़ता है। "आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि चारित्र ही वास्तव में धर्म है, जो धर्म है। वह समत्व है और मोह एवं क्षोभ से रहित आत्मा की शुद्ध दशा को प्राप्त करना ही समत्व है।,,46
इस तरह जैन आचार दर्शन में सम्यक्चारित्र का कार्य आत्मा के समत्व का संस्थापन माना गया है।
४. तपाराधना : सामान्य रूप में जैन साहित्य में साधना का त्रिविधमार्ग प्रतिपादित है, लेकिन प्राचीन आगमों में एक चतुर्विधमार्ग का भी वर्णन मिलता है। “उत्तराध्ययन और दर्शनप्राभृत में चतुर्विधमार्ग का वर्णन है । 47 संवेगरंगशाला में साधना के चतुर्विध मार्ग का उल्लेख है, जिसमें साधना का चौथा अंग सम्यक्तप कहा गया है। आगम के अनुसार संवेगरंगशाला में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र के साथ-साथ सम्यक्तप का भी उल्लेख है। जैनदर्शन में इच्छाओं के निरोध को तप कहा गया है। तप की आराधना में जिनचन्द्रसूरि ने यह प्रतिपादित किया है-साधक का मन, इन्द्रिय और देह सदैव संयमित होना चाहिए, असंयमित दशा में नहीं होना चाहिए । वात, पित्त और कफ का प्रकोप भी नहीं होना चाहिए एवं आराधना में विघ्न उत्पन्न न हो, इस तरह उत्तरोत्तर गुणों में वृद्धि करते हुए बारह प्रकार के तप का आचरण करना चाहिए। वे बारह प्रकार के तप निम्न हैं:
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१. अनशन
५. काय क्लेश और ६.
२. उनोदरी
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 61
प्रतिसंलिनता
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44 स्थानांगसूत्र, ४/५६५
45 तत्वार्थसूत्र, ६/२
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प्रवचनसार १/७
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उत्तराध्ययन सूत्र २८ / २, ३/३५, दर्शनप्राभृत- ३२
48 संवेगरंगशाला, गाथा ६१३-६२२.
३. वृत्ति संक्षेप ४. रसपरित्याग
ये छः बाह्य तप हैं
तथा
१. प्रायश्चित्त
२. विनय
३.
वैयावच्च
४. स्वाध्याय
५. ध्यान और ६. कायोत्सर्ग- ये छः प्रकार के आभ्यन्तर तप है।
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