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62 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
इन बारह प्रकार के तपों का विस्तृत विवेचन हमने इसी अध्याय में मुनिधर्म के अन्तर्गत किया है।
संवेगरंगशाला में तप की महिमा का वर्णन करते हुए भगवान् महावीर के साधनाकाल का निरूपण किया गया है। जिनेश्वर द्वारा कथित तप इन्द्रियों का दमन करने वाला है, सर्वदोषों का निग्रह करनेवाला है, सर्वविघ्नों का हरण करनेवाला है, देवताओं को वश में करनेवाला है, निर्जरारूप फल प्रदान करनेवाला है एवं संसार - परिभ्रमण को नष्ट करने वाला है। यह आरोग्य प्रदान करनेवाला भी है, अतः तप उत्तम मंगलरूप है, इसलिए प्रत्येक साधक को शक्ति के अनुसार तप का आचरण करना चाहिए ।
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इसी सन्दर्भ में तप और संयम से युक्त अहिंसा - धर्म की मंगलमयता का उद्घोष करते हुए जैनाचार्य कहते हैं धर्म मंगलमय है, परन्तु कौनसा धर्म ? अहिंसा, संयम और तपमय धर्म ही सर्वोत्कृष्ट तथा मंगलमय है। जो इस धर्म के पालन में दत्तचित्त है, उसे मनुष्य तो क्या, देवता भी नमन करते हैं।
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इस सम्यक् तप का विवेचन आगम ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है । तत्वार्थ की सर्वार्थसिद्धिटीका मूलाचा तत्त्वार्थसूत्र आदि में तप के स्वरूप एवं भेदों का सुन्दर चित्रण किया गया है। कर्मक्षय करने में तप अणुबम के सदृश है। तप में अनन्त शक्ति छिपी है, जिसके द्वारा साधक अपने अनादिकाल के बन्धे हुए कर्मपुद्गलों को नष्ट कर सकता है। इस तरह तप की आराधना से आराधक संसाररूपी अटवी को पार कर सकता है।
आराधक की योग्यता ( अर्हता )
मुख्य प्रतिपाद्य विषय सम्यक् आराधना करने के लिए कौन व्यक्ति योग्य होता है - यह बताना है। जैन धर्म में आराधना शब्द मुख्यतया दो अर्थों में प्रयुक्त होता है- प्रथम अर्थ में आराधना का तात्पर्य संसार के भोगों से विरक्त होकर श्रावक या श्रमण जीवन को स्वीकार करना है, जबकि दूसरे अर्थ में आराधना का तात्पर्य समाधिमरण को स्वीकार करना है। प्रस्तुत कृति में आराधना शब्द का प्रयोग उसके सामान्य अर्थ में ही हुआ है।
49 संवेगरंगशाला, गाथा ६१८-६२२
50 दशवैकालिक, १/१.
51 सर्वार्थसिद्धि, ६/११.
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मूलाचार, ५/५३
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तत्वार्थसूत्र, ६ / २२.
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