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64 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
- जैन-धर्म में राग-द्वेषजन्य कषायों को कुमार्ग की दिशा में ले जाने वाला कहा गया है। आराधना तो सन्मार्ग पर चलना है, जब तक व्यक्ति के मन में कषायरूपी शल्य भरे हुए हैं, तब तक वह आराधना के मार्ग पर गति नहीं कर सकता है, इसलिए प्रस्तुत कृति में यह बताया गया है कि आराधक को कषायों पर विजय प्राप्त करके अपने मन को शान्त और सौम्य बना लेना चाहिए। जिस व्यक्ति ने कषायों पर विजय प्राप्त कर ली है और जो दूसरे जीवों के कषायों को भी उपशान्त करने का प्रयास करता है, वही आराधना या संयम-साधना के योग्य है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रस्तुत कृति में आराधना करने वाले व्यक्ति को सम्यक्श्रद्धा (सम्यक्दर्शन), सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से युक्त होना चाहिए। जिस व्यक्ति में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का उदय होता है, वही व्यक्ति आराधना करने के योग्य होता है।
व्यवहारिक दृष्टि से आराधक बनने के लिए संवेगरंगशाला में कुछ निर्देश भी उपलब्ध होते है। उसमें कहा गया है कि आराधक बनने के लिए अर्थात् मुनि जीवन स्वीकार करने के लिए व्यक्ति को अपने परिवारजनों की आजीविका को सुस्थिर करके, फिर ही परिवार छोड़ने का निश्चय करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, परिजनों की आजीविका को सनिश्चित करके ही व्यक्ति को संयम मार्ग को ग्रहण करना चाहिए। यदि वह परिजनों की आजीविका का सुनिश्चित प्रबन्ध नहीं करता है, तो एक ओर परिजन अर्थाभाव में दुःखी होते हैं तथा दूसरी ओर वह लोकनिन्दा का पात्र भी बनता है, किन्तु यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि जिस व्यक्ति के पास सम्यक् आजीविका के साधन न हों, अर्थात् अर्थाभाव से ग्रस्त हो, तो क्या उसे संयममार्ग ग्रहण करने का अधिकार नहीं है? इस सम्बन्ध में आचार्य एक मध्यममार्ग को प्रस्तुत करते हैं और कहते हैं कि जो व्यक्ति अर्थाभाव से ग्रस्त हो अथवा परिवारजनों की आजीविका की व्यवस्था कर पाने में सक्षम न हो, से भी संयममार्ग ग्रहण करने के पूर्व किसी विशिष्ट धार्मिक व्यक्ति को उनके परिपालन का दायित्व देकर ही संयममार्ग की साधना या आराधना का निर्णय लेना चाहिए। इससे यह भी प्रतिफलित होता है कि संवेगरंगशाला में आचार्यश्री ने धर्माराधना के पूर्व सामाजिक-दायित्वों के परिपालन के लिए भी पर्याप्त बल दिया है। पारिवारिक और सामाजिक-दायित्वों की उपेक्षा करके वे धर्माराधना, अर्थात् मुनि-जीवन स्वीकार करने की प्रेरणा नहीं देते हैं।
57 संवेगरंगशाला, गाथा ८२२-८२४ 58 संवेगरंगशाला, गाथा ६२५-८३७
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