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56 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
मुनि के विशेष आचार की चर्चा करेंगे, यद्यपि यहाँ विशेष आचार से भी हमारा तात्पर्य गृहस्थ-वर्ग और मुनि-वर्ग की सामान्य आचार-विधि से ही है। इसके अनन्तर हम दोनों के लिए अन्तिम आराधना या समाधिमरण की साधना सम्बन्धी विधि का एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे। समाधिमरण सम्बन्धी विशेष साधना का उल्लेख तो अग्रिम अध्यायों में किया जाएगा। जैनधर्म का सामान्य साधना-मार्ग
सामान्य रूप से तत्त्वार्थसूत्र आदि में आराधना या साधना का त्रिविधमार्ग प्रतिपादित है, लेकिन प्राचीन जैन-आगमों में चतुर्विध मार्ग का भी उल्लेख मिलता है। श्वेताम्बर परम्परा में उत्तराध्ययनसूत्र में और दिगम्बर-परम्परा में कुन्दकुन्द के अष्टप्राभृत4 में चतुर्विधमार्ग का उल्लेख है। संवेगरंगशाला में भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना किस रूप में करना चाहिए, इसका संक्षिप्त विवेचन करते हुए कहा गया है कि आराधक को इन सबकी आराधना निरतिचारपूर्वक करना चाहिए। प्रस्तुत कृति में आराधना के दो रूप बताए गए हैं। १. सामान्य आराधना और २. विशेष आराधना। 35 संवेगरंगशाला में सर्वप्रथम सामान्य आराधना का वर्णन निम्न चार वर्गों में किया गया है- १. ज्ञानाराधना २. दर्शनाराधना ३. चसरित्राराधना और ४. तपाराधना। १. ज्ञानाराधना : जैन-दर्शन में आगम या श्रुत के अध्ययन को ज्ञानाराधना कहा गया है। उसमें आगमों को दो भागों में विभक्त किया गया है- १. कालिक आगम और २. अकालिक-आगम। शास्त्र के पढ़ने योग्य काल में ही जिन आगमों को पढ़ना चाहिए, वे कालिक-आगम हैं। जैसे- आचारांग, आदि। इनका अध्ययन, अध्ययन-हेतु निर्धारित काल में ही करना होता है। जो शास्त्र काल और अकालदोनों में पढ़े जा सकते हैं, वे उत्कालिक आगम हैं। जैसे - दशवैकालिक, आदि।
ज्ञानाराधना के सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में यह कहा गया है - सूत्रों में पढ़ने का जो समय निर्धारित किया गया है, उसी समय उन सूत्रों को अत्यन्त विनयपूर्वक पढ़ना चाहिए। सूर्य एवं चन्द्र-ग्रहण, सन्ध्याकाल आदि में शास्त्र नहीं पढ़ना चाहिए। दूसरे, आगम-ग्रन्थों के शब्दों तथा स्वर, व्यंजन और मात्राओं का शुद्ध उच्चारण करना चाहिए, साथ ही शास्त्र की आवृत्तिमात्र न करके उसका अर्थ समझकर पढ़ना चाहिए। द्रव्य, क्षेत्र, आदि की शुद्धि के साथ विनयपूर्वक
33 उत्तराध्ययनसूत्र - २८/२. 34 दर्शनप्राभृत गाथा, ३२ 35 संवेगरंगशाला गाथा, ५८७-५८८.
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