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34 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
(२) आलोचना - कुलक:
इस प्रकीर्णक में भी मात्र १२ गाथाएँ हैं। इसमें विविध दुष्कृतों की आलोचना का उल्लेख है एवं अन्तिम गाथा में आलोचना का माहात्म्य बताया गया है । "
(३) मिथ्यादुष्कृत - कुलक ( प्रथम ) :
'मिथ्यादुष्कृत - कुलक' में आराधक द्वारा नरकादि चार गतियों के सभी प्राणियों से क्षमापना करने और मिथ्यादुष्कृतों की निन्दा करने का निरूपण है। 10 (४) मिथ्यादुष्कृत - कुलक (द्वितीय):
इस प्रकीर्णक में १७ गाथाएँ हैं। कुलक के आरम्भ में आराधक द्वारा चौरासी लाख जीवयोनियों में भ्रमण करते हुए जिन-जिन प्राणियों को दुःख दिया है, उसका मिथ्याकृत करने, अर्थात् आलोचना करने का निरूपण है । "
(५) आत्मविशोधि - कुलक :
इस प्रकीर्णक में कुल २४ गाथाएँ हैं। इसमें आराधक के द्वारा आत्मविशुद्धि के लिए विविध दुष्कृतों की निन्दा करने का उल्लेख है। इसके पश्चात् आराधक द्वारा आहार और समस्त शारीरिक गतिविधियों के त्याग का निर्देश है। अन्त में आलोचना से होने वाली आत्मविशुद्धि का माहात्म्य बताया गया है। 12 (६) चतुःशरण- प्रकीर्णक :
इसमें कुल २७ गाथाएँ हैं। इस प्रकीर्णक में आराधक की कुशलता हेतु चतुःशरण ग्रहण, दुष्कृत गर्हा और सुकृत का अनुमोदन - इन तीन अधिकारों का निर्देश है। 13
(७) आतुर - प्रत्याख्यान ( प्रथम ):
इस नाम के तीन प्रकीर्णक उपलब्ध होते हैं। इनमें प्रथम में गद्य-पद्य मिश्रित ३० गाथाएँ हैं। इस प्रकीर्णक में पाप त्याग एवं ममत्व - त्याग की प्रतिज्ञा और क्षामणा आदि का निरूपण किया गया है। इसमें आत्मा को एकत्वभाव की
9 आलोचनाकुलक पइण्णयसुत्ताई, भाग २, पृ. २४६-२५०, गाथा १-१२.
10 मिथ्यादुष्कृत पइण्णयसुत्ताई, भाग २, पृ. २४५ - २४६, गाथा १-१२.
11 मिथ्यादुष्कृतकुलक (द्वितीय) - पइण्णयसुत्ताई, भाग २, पृ. २४७-२४८, गाथा १-१६.
12 आत्मविशोधिकुलक - पइण्णयसुत्ताई, पृ. २६१-२६३, गाथा १-२४.
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चतुःशरण प्रकीर्णक - पइण्णयसुत्ताई, भाग १, पृ. ३०६ - ३११, गाथा १-२७.
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