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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 45
संवेगरंगशाला एवं आराधनापताका में भिन्नता :
रचना
संवेगरंगशाला के रचयिता पूज्य आचार्य जिनचन्द्रसूरि हैं। उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् ११२५ में की थी। इस ग्रन्थ में कुल १००५४ प्राकृत गाथाएं हैं। वीरभद्राचार्यविरचित आराधनापताका की रचना इसके पूर्व विक्रम संवत् १००८ में हुई है। इस प्रकीर्णक में कुल ६८६ गाथाएं उपलब्ध हैं। इस प्रकार संवेगरंगशाला आराधनापताका से परवर्ती और विस्तृत है। फिर भी दोनों की - शैली एक-दूसरे से प्रभावित है। संवेगरंगशाला में आराधना के दो भेद करके फिर विस्तृत आराधना के चार भेद किए गए हैं, जबकि आराधनापताका में समाधिमरण के विचार और सविचार - दो भेद करके, सविचार - भक्तपरिज्ञामरण के चार भेद करके उनका विस्तृत विवेचन किया गया है। संवेगरंगशाला में चार द्वारों के क्रमशः पन्द्रह, दस, नौ और नौ प्रतिद्वार हैं, परन्तु आराधनापताका में चार द्वारों के क्रमशः ग्यारह, दस, दस और आठ प्रतिद्वार हैं। इस प्रकार संवेगरंगशाला में आराधनापताका की अपेक्षा प्रतिद्वारों की संख्या ज्यादा है। प्रथम परिकर्मविधिद्वार में जहाँ आराधनापताका में ग्यारह द्वार हैं, वहीं संवेगरंगशाला में पन्द्रह द्वार हैं। यद्यपि दोनों में ग्यारह द्वारों के नाम और विषयवस्तु की समानता है, किन्तु संवेगरंगशाला में उपलब्ध मनोनुशास्तिद्वार, राजद्वार, मरणविभक्तिद्वार और अधिगतद्वार- इन चार द्वारों का उल्लेख आराधनापताका में नहीं है। इस प्रकार संवेगरंगशाला आराधनापताका की अपेक्षा इन चार द्वारों का विशेष रूप से उल्लेख करती है। इसी प्रकार द्वितीय परगणसंक्रमणद्वार के प्रतिद्वारों की संख्या को लेकर दोनों में समानता परिलक्षित होती है। आराधनापताका में परगणसंक्रमण के जिस प्रकार दस द्वार बताए गए हैं, उसी प्रकार संवेगरंगशाला में भी परगणसंक्रमण के दस प्रतिद्वारों का ही उल्लेख है। इस प्रकार परगणसंक्रमण नामक द्वितीय मूलद्वार के प्रतिद्वारों के नामों और संख्याओं को लेकर दोनों में किसी प्रकार की भिन्नता नहीं होती है। तृतीय ममत्वविच्छेदन नामक मूलद्वार के अन्तरद्वारों की संख्या जहाँ आराधनापताका में दस है, वहीं संवेगरंगशाला में नौ है । इस प्रकार तृतीय ममत्वविच्छेदनद्वार में संवेगरंगशाला में आराधनापताका की अपेक्षा एक द्वार कम है। आराधनापताका में इस ममत्व - विच्छेदद्वार के दस प्रतिद्वारों में दूसरा गुणदोषद्वार है, किन्तु संवेगरंगशाला में इस नाम के किसी द्वार का उल्लेख नहीं है। शेष नौ द्वारों के नाम और विषयवस्तु, दोनों ग्रन्थों में समान ही है।
संवेगरंगशाला और आराधनापताका- इन दोनों ही ग्रन्थों में समाधिलाभ नामक चतुर्थ मूलद्वार में द्वारों की संख्या को लेकर अन्तर है। जहाँ वीरभद्र ने
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