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२. यह मेरी मातृ-भूमि
हमारा यह देश महान् है पथिक !
आस्तिक्य और अनुकम्पा इस धरती को माटी के रसायन हैं। इसके धरा-गगन पर दिखाई देनेवाले सातों रंगों का उत्स एक ही है। इसकी सारी विविधताओं के अंकुर किसी गहराई में जाकर एक ही जड़ से फूटते हैं। हिमगिरि के शिखर और सागर की हिलोरें, कहीं न कहीं इस पावन धरती के एक ही धरातल पर अवस्थित हैं।
उत्तरापथ और दक्षिणापथ इसकी भुजाएँ हैं। पर इस भूमि-विग्रह में धड़कनेवाला हृदय एक ही है। आर्यावर्त और दक्षिणावर्त कभी प्रतिस्पर्धी नहीं थे। वे सदा एक-दूसरे के पूरक ही रहे। एक में अनेकता, और अनेक में एकता, भारत की दार्शनिक व्याख्याओं में भर नहीं, यहाँ की सांस्कृतिक परम्पराओं में भी, सदा से व्याप्त है। प्रणम्य है यह धरा।
विश्व के प्राणियों को सूख और स्वातन्त्र्य का संदेश देनेवाली श्रमण संस्कृति की शीतल धारा, इस पुण्य भूमि पर सतत प्रवहमान रही है। इस धारा को निर्मल और अटूट बनाये रखने में उत्तर और दक्षिण दोनों का समान योग रहा है।
उत्तरापथ यदि गौरवान्वित है तीर्थंकरों की जन्मभूमि होने के कारण, तो दक्षिणापथ भी पावन हुआ है उनके विहार से । उसकी गरिमा इसलिए भी है कि तीर्थंकरों की लोककल्याणी वाणी को प्रसारित करने वाले गुरु, उनके साधना मार्ग को जीवन पर उतारकर साक्षात् दिखाने वाले आचार्य, प्रायः दक्षिणापथ में ही जनमे हैं। यहीं उन्होंने अपनी साधना के द्वारा श्रमण संस्कृति की प्रभावना की है। शास्त्रों की रचना और फिर दीर्घकाल तक उनका संरक्षण भी यहीं हुआ है। दक्षिणापथ में जैन संस्कृति के संरक्षण और प्रसार के लिए, प्रारम्भ