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में सबकी स्वांस रुक गयी । सारे स्पन्दन रुद्ध हो गये, पर गुल्लिका से निकली वह दुग्ध-धार इस बार कहीं रुद्ध नहीं हुई । घुटनों को प्रक्षाल कर, दोनों चरणों को पखारती हुई वह अजस्र धार, क्षण भर में ही भगवान् के चरण-तल की पद्मशिला को आप्लावित करने लगी ।
अभिषेक की पूर्णता लखकर लोगों में उल्लासपूर्ण हलचल मच गयी । हर्ष और भक्ति के आवेग में उनकी आँखों से अश्रु टपक पड़े । 'बाहुबली की जय' बोलते हुए वे उस पावन दुग्ध को अपने मस्तक पर चढ़ाने लगे। आँखों में आंजने लगे । साश्चर्य देख रहे थे वे कि गुल्लिका से वह धारा अभी भी अक्षीण होकर ही प्रवाहित होती आ रही थी । दुग्ध के अजस्र प्रवाह में अभी तक तनिक-सी भी क्षीणता परिलक्षित नहीं हो रही थी ।
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गोमटेश भगवान् के जय-जयकार से समूचे वन प्रान्त का गगन गूंज उठा। इसी जयघोष ने मातेश्वरी का ध्यान भंग किया । नेत्र खोलते ही काललदेवी ने देखा, पवित्र अभिषेक का वह दुग्ध, एक पतली धारा के रूप में उनके सामने से ही बहता हुआ, विन्ध्यगिरि को प्रक्षालित करता जा रहा है । उस दुग्ध को अंजरी में भर-भर कर सौरभ उन पर छींट रहा है। उनका मन हर्ष से नाच उठा । वे भी गोमटेश की जय-जयकार कर उठीं ।
उस अतिशय से आकृष्ट होकर, अजितादेवी और सरस्वती, न जाने aa, गुल्लिका - अज्जी को अभिषेक करता हुआ ही छोड़कर, मंच से उतर आयीं थीं । दुग्धोदक की वन्दना करके अब वे भी गोमटेश की भक्ति में लीन थीं ।
पर्वत को प्रक्षालती हुई वह धारा उधर, उस सरोवर तक आते मैंने भी देखी। उस दिन इस दुग्ध अभिषेक ने हो मेरे इस सहोदर को जिनायतन बना दिया। उस दिन से वह पूरा पर्वत ही पूज्य हो गया । इस घटना को दैवी अतिशय अथवा इन्द्र की लीला मानकर, लोगों ने विन्ध्यगिरि को 'इन्द्रगिरि' का नाम दे दिया। अभिषेक के पवित्र दुग्ध से उस दिन वह सरोवर भी परिपूर्ण हो उठा। अनेक प्रकार के दैहिक कष्ट निवारण करने की कल्याणी शक्ति, सदा के लिए उसके जल में समाहित हो गयी । उसी दिन से 'कल्याणी सरोवर' उसका नाम हुआ ।
शक्ति का विसर्जन
चामुण्डराय ने अनुभव किया कि उनकी अवचेतन मनोभूमि में अनजाने ही, अभिमान की एक बेडौल शिला कहीं उत्पन्न हो गई थी ।
गोमटेश - गाथा / १८७