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४८.
अब तुम्हीं कहो प्रवासी ! उन बाहुबली भगवान् का किसे पार मिलेगा ? कैसे पार मिलेगा ?
गोमटेश्वर की महिमा अपरम्पार है ।
प्रतिक्षण नूतन उनके रूप अनन्त हैं ।
वे
एक विशाल स्वच्छ दर्पण की भाँति हैं ।
यहाँ जो भी आता है, इस अनोखे बिम्ब में अपने ही अन्त का प्रतिfe देखता है ।
शैशव, उन्हें अंकवार में भरकर घर ले जाना चाहता है ।
तरुणाई, उनकी अडोल थिरता में अपना जीवनादर्श देखती है । मातृत्व, दिठौना लगाकर जगत् की कुदृष्टि से उन्हें बरकाना चाहता
है।
बुढ़ापा, उनकी दर्शन- सुधा का पान करके आत्मलीन हो जाता है । कवि, उनकी सौन्दर्य कल्पना में किंकर्तव्यविमूढ़-सा रह जाता है । उसे इन उपमेय के अनुरूप उपमान ढूंढ़े से भी नहीं मिलते।
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कलाकार, उनके दिव्य सौन्दर्य की अनुभूति से द्रवित विस्मित- सा रह जाता है । उसकी सृजन-शक्ति स्फुरित हो उठती है ।
दार्शनिक, उनकी अनन्त गरिमा में खो जाता है । नश्वर जगत् में विद्यमान यह अविनश्वर मुद्रा, उसके समक्ष अनेक गूढ़ प्रश्न प्रस्तुत करती है ।
वैज्ञानिक, उनकी महिमा से चकित हो उठता है । कठोरतम पार्थिव कृति में कोमलतम अपार्थिव भावों की यह प्रस्तुति, उसे किसी रहस्य - सी लगने लगती है ।
रागी, उनकी भक्ति में तन-मन की सुध-बुध भूल जाता है ।