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पूर्णाभिषेक की इसी बेला में, स्वच्छ निरभ्र गगन पर, सहसा एक छोटी-सी बदली न जाने कहाँ से उठी और देखते ही देखते गोमटेश पर छा गयी। चार ही क्षण में बड़ी-बड़ी शीतल बूंदों से भगवान् को अभिषिक्त करके वह दिव्य-घटा तत्काल विलीन भी हो गयी। अल्पकाल में ही आकाश फिर निरभ्र था। सूर्य की किरणें पुनः वहाँ नाच रही थीं। ग्राम में, मेले पर, तथा यहाँ मेरी पीठ पर, उस वर्षा की एक बूंद भी नहीं गिरी थी। विन्ध्यगिरि भी पूरा नहीं भीगा था, बस भगवान का अभिषेक करके, आस-पास की थोड़ी सी भूमि का प्रक्षाल करके ही, देवराज इन्द्र की वह लीला नटी अन्तर्धान हो गयी थी।
गोमटेश्वर का यह महोत्सव देखकर लोगों के नयन और मन जैसी शीतलता प्राप्त कर रहे थे, चार क्षण में इस वर्षामत से उनके शरीर भी वैसे ही निस्ताप हो गये। सुखद सुरभित बयार के कई झोंके वहाँ शीतलता का विस्तार कर गये। ___ महाकवि रत्न ने विनोदपूर्वक जिनदेवन से कहा
'देखा अन्ना ! कल गुल्लिका-अज्जो दुग्धाभिषेक सम्पन्न करा गयी थीं। पूर्णाभिषेक के लिए आज मेघमाला का आकस्मिक अवतरण हो गया। हमारे बाहुबलो त्रिलोकपूजित हैं, अब तो हमने यह प्रत्यक्ष देख लिया न? यह तो आचार्यश्री की स्तुति में से 'देविंदर्विदच्चिय पाय-पोम्म' का साक्षात् रूपानुवाद हो गया। वह नन्हा पुजारी ___ इस महोत्सव में सौरभ के आनन्द और उत्साह की सीमा नहीं थी। अजितादेवी ने उसके लिए एक छोटा-सा स्वर्ण-कलश बनवाया था। बारम्बार उसे भराकर उस बालक ने बड़े प्रमुदित मन से अभिषेक किया। कौशेय वस्त्रों में रत्नमुकुट से अलंकृत वह नन्हा पुजारी अलग ही दिखाई देता था। उत्साह से भरी उसकी चपलता, और आनन्दानुभूति से चमकते उसके नेत्रों की प्रभा, आज भी मुझे बार-बार स्मरण आती है। मैं सोचता हूँ पथिक, यदि धार्मिक संस्कार प्राप्त हों, वैसा वातावरण मिले तो संस्कृति की धरोहर को वहन करने की क्षमता, तुम्हारी नयी पीढ़ी में जन्मजात होती है। प्रौढ़ वर्ग जागरूक और अविचलित रह सके, तो बालकों में उस प्रतिभा का कभी अकाल नहीं होगा। महावीर की परम्परा का यह रथ, काल की संधि तक इसी प्रकार संचालित होता रहेगा।
गोमटेश-गाथा | १६३