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जाता। दीक्षा-मन्त्रों के उच्चारण पूर्वक उसे जीवन भर के लिए पंच महाव्रतों और अट्ठाईस मूलगुणों की प्रतिज्ञा दिलाते। उसके उपरान्त जीवदया के लिए मयूर पंखोंवाली पिच्छी उसे ग्रहण करायी जाती। शारीरिक शुचिता के लिए काष्ठ का कमण्डलु प्रदान किया जाता। अन्य साधु उसका केशलोंच पूरा कर देते तब दीक्षार्थी के नवीन नामकरण के साथ उसे दिगम्बर मुनि घोषित कर दिया जाता था।
पण्डिताचार्य को दीक्षा देकर 'अरिष्टनेमि' उनका शभ नाम घोषित किया गया। आचार्य द्वारा यह नामोच्चार होते ही 'अरिष्टनेमि महाराज की जय' का घोष बड़ी देर तक वहाँ गूंजता रहा। सभी नव दीक्षित साधओं ने भक्तिपूर्वक गोमटेश भगवान् की वन्दना करके उपस्थित सभी आचार्यों और मुनिजनों को नमस्कार किया। साधु की स्वाधीन वृत्ति ___ मनिदीक्षा के अवसर पर वैराग्य से भरे वे क्षण महान थे पथिक ! साधर्मी का सम्मान और समाज-वात्सल्य पण्डिताचार्य का विशेष गुण था। वहाँ सहस्रों ऐसे नर-नारी थे जिनका उनसे वर्षों का स्नेह सम्बन्ध था । आज विराग तो केवल पण्डिताचार्य के मन में आया था, अतः वे सब लोग, उन्हें गृहत्याग करता देखकर, राग के वशीभूत दुखी हो रहे थे। राग और विराग दोनों वहाँ साकार थे।
दीक्षा की प्रक्रिया में पण्डिताचार्य ने अपने सिर, मूंछ और दाढ़ी के बाल, घास की तरह उखाड़कर फेंक दिये थे। उनके सिर पर सघन और सूचिक्कण दीर्घ केशावलि थी। अंगुलियों में लपेटकर, अत्यन्त निर्ममत्व भाव से, धरती में से पके हुए धान्य की तरह उन्हें उखड़ता हआ देखकर, अपने शरीर के प्रति साधक. का निर्मोह भाव वहाँ साक्षात् दिखाई दे रहा था। .. संसार जानता है पथिक, कि जिह्वा और स्पर्श इन्द्रिय की वासना, मानव मन की सबसे बड़ी दुर्बलता है। स्वाद की लोलुपता में बड़े बड़े साधक डिग जाते हैं। स्पर्श इन्द्रिय के भोग की लालसा का जाल तो जगत् विख्यात है। उससे उत्पन्न शरीर के विकार प्रकट दिखाई देते हैं। किन्तु दिगम्बर साधु का यह नग्न वेष, ऐसा प्रत्यक्ष प्रकट वेष है, जहाँ शरीर की ऐसी किसी विकृति को छिपा लेने का कोई अवसर ही नहीं है। सच्चा इन्द्रिय संयम, दिगम्बर साधु-जीवन का अनिवार्य अंग है। वासना का अभाव करके उसे शिशु की तरह निष्पाप और निर्दोष होना आवश्यक है। . . . . . . . . . . १६६ / गोमटेश-गाथा