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४६. सिद्धान्तचक्रवर्ती का दीक्षान्त प्रवचन
सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य का प्रवचन अब प्रारम्भ होनेवाला था । अत्यन्त मनोग्राही शैली में वे आचार्य बोलते थे । उनकी वाणी भी सारगर्भित होती थी। आज तो दूर-दूर के आगन्तुक उनका उपदेश सुनने के लिए उत्सुक और लालायित यहाँ बैठे थे । जन समुदाय तुम्हारे इस चन्द्रगिरि पर अँट नहीं रहा था । आज की उपस्थिति ने मुझे अपनी संकीर्णता का बोध करा दिया था ।
ध्वनि - विस्तारक यन्त्र तब नहीं थे, परन्तु वक्ताओं की वाणी ऐसी सशक्त, इतनी ओजपूर्ण होती थी कि दूर-दूर तक स्पष्ट सुनाई देती थी । आज के दूषित पर्यावरण से मुक्त, उस काल का वातावरण भी निर्मल, पवित्र और अधिक संवेदनशील मुझे लगता था । नेमिचन्द्राचार्य की वक्तृता तो अनोखी ही थी । वैसी अर्थवती वाणी, शब्दों का वैसा ललित संयोजन और वैसा गुरु-गम्भीर-गर्जन, उनके पश्चात् किसी और के कण्ठ से फिर मैंने कभी नहीं सुना ।
स्वरचित गोमटेश स्तुति के प्रथम पद से मंगलाचरण करते हुए आचार्यश्री का प्रवचन प्रारम्भ हुआ—
दलारण, यारं,
विस-कंदो सुलोय चंद- समाण- तुण्डं । घोणाजियं चम्पय- पुप्फसोहं, तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं ॥
'आज आप सबके लिए आनन्द का अवसर है । हमें गुरुवर पूज्य अजितसेन महाराज का चरण - सान्निध्य प्राप्त हुआ । इतने मुनिराजों त्यागियों का सत्संग लाभ, आपके लिए भी इस उत्सव की महती उपलब्धि है ।'