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कुलता और शान्ति का लेशमात्र भी इसमें कभी प्राप्त हुआ नहीं। वासना कभी मिटी नहीं, आशा-अभिलाषा अनन्त होती गयी। कुम्भकार के चाक पर चढ़ी हुई माटी के समान मैं घूमता रहा। नाना रूप धारण करता रहा। चाह की दाह में बार-बार झुलसता रहा। विषयों के वारिधि में बार-बार डूबता रहा। कर्म के निष्ठुर आघातों से बार-बार खण्डित होता रहा, पर इस भव-भ्रमण का ओर-छोर कभी मिला नहीं।'
'अब बहुत हुआ प्रभो! अब सहा सहीं जाता। आपकी कृपा से आज मार्ग दिखाई दे गया है। निराकुलता का जो पथ आपने ग्रहण किया है, इस अधम को भी उस पथ पर चलने के लिए सहारा दीजिए महाराज! पंच महाव्रत प्रदान करके आज मेरा भी उद्धार कर दीजिए।'
पण्डिताचार्य की यह संवेग भरी वाणी सुनते ही सभा में सन्नाटा-सा छा गया। विस्मय भरी दृष्टि से लोग उनकी ओर देखने लगे। महामात्य अपने स्थान से उठकर उनके समीप पहुँच गये। दोनों का दीर्घकाल का साथ था। पूरा परिवार कुटुम्ब के वरिष्ठ सदस्य की तरह, पण्डिताचार्य की आदर-विनय करता था। आज अकस्मात् उनके गह-त्याग का संकल्प सुनकर सब अवाक रह गये थे। अगले क्षण ही गले लगकर दोनों स्नेहपाश में बँधे खड़े थे। दोनों के नेत्रों से अश्रुपात हो रहा था। एक छोटीसी स्मित रेखा, एक निमिष के लिए आचार्यश्री के आनन पर खेल गयी। हाथ के इंगित से ही उन्होंने भावुकता में बँधे दोनों भव्यों को ऐसे शान्त किया, जैसे ममतामयी माता अपने अज्ञ बालकों को सान्त्वना देती है। पण्डिताचार्य ने आचार्य महाराज के चरणों पर सिर रखकर वन्दन किया और उनके ही समक्ष मुमुक्षु-जनों के लिए रखी काष्ठ चौकियों में से एक पर बैठ गये।
आचार्यश्री के निर्देशानुसार दीक्षार्थी के नाम, जाति, कुल, गोत्र, स्थान, पद आदि की घोषणा करके, वहाँ उपस्थित मुनियों, आर्यिकाओं, श्रावकों और श्राविकाओं के चतुर्विध संघ से, दीक्षार्थी को मुनि-दीक्षा प्रदान करने के लिए, दिगम्बर साधु-संघ में प्रवेश देने के लिए, सहमति प्राप्त की जाती थी। दीक्षार्थी के माता-पिता, पत्नी और उपस्थित बन्धुबान्धवों से भी सहमति प्राप्त की जाती थी। ___ इस प्रकार संघ की सहमति मिलने पर ही दीक्षार्थी को दिगम्बरी दीक्षा का अधिकारी माना जाता था। सर्वप्रथम केसर से उसके भाल पर स्वस्तिक और ओम् का अंकन करके, आचार्यश्री उसका पंचमुष्टि केशलोंच करते थे। दीक्षार्थी के समस्त वस्त्राभूषणों का त्याग कराकर उसे यथाजात नग्न-दिगम्बर रूप में सामने एक प्रथा आसन पर बिठाया
गोमटेश-गाथा | १६५