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अब पण्डिताचार्य को दिन में केवल एक बार, आदर भक्तिपूर्वक
भिक्षा ग्रहण करना थी । वह भी वहीं, अपने हाथों में ग्रहण करके, मौनपूर्वक, सूक्ष्म दृष्टि से उसका शोधन करके, दाता के घर पर खड़ेखड़े ही वह भोजन करना था । वन की गुफाओं - कन्दराओं में या निर्जन एकान्त देवालय आदि में निवास करना था । महल और श्मशान दोनों अब उनके लिए समान थे। शत्रु-मित्र की भावना से वे ऊपर उठ चुके थे । काँच और कंचन में, निन्दा और स्तुति में उनका समभाव था । जीवन भर अपने नग्न शरीर पर ही शीत, ग्रीष्म और पावस के उत्पात, समता भाव से उन्हें सहना थे । आकस्मिक या नियोजित, मानवकृत या प्राकृतिक, कोई भी उपद्रव, उपसर्ग या परीषह अब उन्हें उनकी आत्म-साधना से डिगा नहीं सकते थे । उनके संकल्प अकम्प और अडोल थे ।
आठ प्रहर में एकबार भोजनपान, यथाजात निर्वस्त्र रहने का संकल्प और वर्ष में चार-छह बार निर्ममत्व भाव से केशों का लोंच, जैन तपस्वी की अनवरत अग्निपरीक्षा वाली क्रियाएँ हैं । देह और आत्मा की पृथकता का जो पाठ वह पढ़ता है, उस पर उसकी आस्था को परखने के ये सतत प्रयोग हैं । इन्हीं क्रियाओं से साधु की स्वाधीन वृत्ति की और उसके गौरव की रक्षा होती है ।
पण्डिताचार्य ने अब जीवन भर के लिए हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, इन पाँच पापों का सर्वथा त्याग कर दिया था । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, शील और आकिंचन्य को जीवनव्रत की तरह अब उन्होंने अपना आराध्य स्वीकार कर लिया था । भावों की हिंसा और मन के विकार भी अब उनके लिए अपराध हो गये थे । निरन्तर उनसे बचने का उन्हें पुरुषार्थ करना था । 'स्यात् ' विशेषण से विभूषित, हित, मित, और प्रिय वाणी ही अब उनका एकमात्र वचन व्यापार थी । संसार की स्वतः स्वाधीन व्यवस्था और अनेक दृष्टियों से अनेक रूप दिखाई देने वाला, पदार्थ का अनेकान्त सम्मत स्वरूप ही अब उनके चिन्तन का आधार था । इस प्रकार
आचरण में अहिंसा,
वाणी में स्याद्वाद, चिन्तन में अनेकान्त |
यही था - दिगम्बर
• साधु का जीवन सिद्धान्त ।
गोमटेश-गाथा / १९७