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४४. पूर्णाभिषेक
दूसरे ही दिन पूर्णाभिषेक हुआ। प्रतिष्ठा-अनुष्ठान का यह सबसे महत्वपूर्ण आयोजन था। जल, चन्दन, दुग्ध, दधि और घृत, पुष्प, फल और स्वर्ण-मुद्राएँ, इन आठ मंगल-द्रव्यों से उस दिन भगवान् का मंगल महाभिषेक किया गया।
उस दिन चारों ओर दूर-दूर तक, मनुष्य ही मनुष्य दिखाई देते थे। उतना विशाल जनसमुदाय एक साथ फिर कभी यहाँ एकत्र हआ हो, ऐसी मुझे स्मति नहीं है। विन्ध्यगिरि पर सम्मानित अतिथियों के बैठने की व्यवस्था की गयी थी। पूरा साधु-समुदाय गोमटेश के सामने काष्ठ के मंच पर विराजमान हुआ। अनगिनते लोग, जिन्हें जहाँ स्थान मिला वहीं से, वह महोत्सव देख रहे थे।
सर्वप्रथम आचार्य नेमिचन्द्र महाराज ने मंच पर जाकर प्रतिष्ठा के शेष संस्कार सम्पन्न किये। मूर्ति को मन्त्रपूत करके उन्होंने त्रियोगपूर्वक उसकी वन्दना की। पश्चात् सभी उपस्थित जनों ने जय-जयकार पूर्वक भगवान् के चरणों पर पुष्प और अक्षत बरसाये । शिल्पियों द्वारा मंच पर से पुष्प वर्षा की ऐसी योजना को गयी थी, कि भगवान् के ऊपर थोड़े-थोड़े अन्तराल से पुष्प-वर्षा होती थी, परन्तु बरसानेवाले हाथ किसी को दिखाई नहीं देते थे। लगता था जैसे गगन से देवों द्वारा ही भगवान् पर पूष्पों और अक्षतों की वर्षा हो रही है। __ थोड़ी ही देर के उपरान्त गंगनरेश ने और महामात्य ने अपने परिवार के साथ अभिषेक प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम स्वच्छ जल के कलशों से भगवान् का न्हवन हुआ। उपरान्त केसर, चन्दन और कर्पूर आदि सुगन्ध मिश्रित जल के कलश ढारे गये। बाहुबली-विग्रह की विशाल देह पर दुग्ध और दधि के अभिषेक की धवल-धाराएँ ऐसी लगती थीं जैसे चमेली