Book Title: Gomtesh Gatha
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 217
________________ जिनदेवन के मुख से यह विस्मय भरी वाणी निकलते ही, एक साथ शतशः नेत्र मंच की ओर उठे, और उठे ही रह गये। __ सबने इधर उधर, चारों ओर दूर-दूर तक दृष्टि दौड़ायी, परन्तु गुल्लिका-अज्जी वहाँ कहीं होती तो मिलतीं। वे तो सुरभित पवन की तरह, अपनी सुगन्ध छोड़कर, वहाँ से अन्तर्धान हो गयी थीं। कौन थी वह वृद्धा? किसने उनका आह्वान किया था यहाँ ? कहाँ से ढंढकर लाये ये उन्हें ? कैसे समाया होगा इतना दूध, छोटी-सी गल्लिका में ? क्या साक्षात् कूष्माण्डिनी महादेवी ही पधारी थीं, अभिषेक करने ? देखते-देखते कहाँ अन्तर्धान हो गयीं ? प्रश्न वहाँ सबके पास थे। उत्तर किसी के पास नहीं था। आचार्यश्री अब तक ध्यानस्थ-से किसी चिन्तन में लीन थे। समुदाय की उस हलचल से जब उनके नेत्र खुले तब, चामुण्डराय गुल्लिका-अज्जी को ढूँढ़ने मंच की ओर जा रहे थे। हाथ के इंगित से बर्जते हुए उन्होंने कहा 'अभिषेक सम्पन्न हो गया गोमट ! उसे सम्पन्न करनेवाली शक्ति को अब देख नहीं पाओगे। अपने ही मन में भक्ति की शक्ति का आकलन अब तुम्हें करना है।' ___ 'सामग्री और निमित्त के सक्रिय सहयोग से ही सारे कार्य सम्पन्न होते हैं। यही संसार की व्यवस्था है। 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' के शाश्वत सूत्रज की उपेक्षा करके, केवल अपने आप में कर्तव्य का गुमान करना, मिथ्या अहंकार है । लगता है तुम्हारे मन से मान का वही काँटा निकालने के लिए किसी महाशक्ति को आज यह कौतुक रचना पड़ा है।' ___'छोटे बड़े का भेद भुलाकर सभी सार्मियों पर वात्सल्य भाव रखो। धर्म की प्रभावना में अपनी सामर्थ्य का उपयोग करो। व्यर्थ के विकल्पों से कोई लाभ नहीं। गुल्लिका-अज्जी मंच पर ढूंढकर सन्तोष करना चाहते हो, तो एकबार जाकर मन का यह भ्रम भी मिटा लो।' ____ मंच पर से महामात्य की दष्टि चारों ओर घूमकर निराश ही लौट आयी। वहाँ न तो गुल्लिका-अज्जी का कोई चिह्न शेष था, न गुल्लिका का। वहाँ तो गोमटेश-गाथा | १८६

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