Book Title: Gomtesh Gatha
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 216
________________ उसके कारण कुछ समय से उनके चिन्तन में गति-अवरोध होने लगा था। वे जान भी न पाये कि कब, अभिषेक की इस दुग्ध धारा के साथ, पानी-पानी होकर वह शिला, कहीं विलीन हो गयी। उसके अस्तित्व का कोई चिह्न अब उनके अन्तस् में शेष नहीं था। अब वे अपने भीतर मार्दव की मृदुलता का साक्षात् अनुभव कर रहे थे। वह छोटी-सी गुल्लिका कितने काल तक गोमटेश के मस्तक पर दुग्ध बरसाती रही, यह अनुमान वहाँ किसी को नहीं था। व्यवधान का निवारण देखकर पण्डिताचार्य को सन्तोष हुआ। वे भी उस कालगणना के प्रति सावधान नहीं रह पाये थे, फिर भी साधारण व्यवधान यह नहीं था, इतना वे समझ गये थे। दीर्घकाल के तृषार्त नाग समूहों को तृप्त करनेवाला पुष्कल दुग्ध, छोटी-सी सामान्य गुल्लिका में से ही बह गया है, यह मानने के लिए उनका कर्मकाण्डी मन, तनिक भी तैयार नहीं था। महामात्य को मान के पर्वत पर से नीचे उतारने के लिए ही, अभिषेक में इस व्यवधान की रचना और उसके सुन्दर समाधान का प्रस्तुतीकरण हुआ है, यह सत्य उनके समक्ष स्पष्ट हो चुका था। उन्होंने तत्काल कूष्माण्डिनी महादेवी का स्मरण किया। पण्डिताचार्य के आवाहन में देवी का स्वरूप इस प्रकार था धत्ते वामकरौ प्रियंकर सुतं, वामे करे मंजरीम्, आम्रस्यान्यकरे शुभंकरजतो, हस्तं प्रशस्तं हरौ। आस्ते भर्तृचरे महाम्रविटैपिच्छोयां श्रिताभीष्टया, यासौ तां नुत नेमिनाथपदयोः नम्रामिहाम्रो यजे॥ शासनदेवता के स्मरण के साथ ही उन्होंने रक्त पुष्पों की अंजली भरकर वेदी की पीठिका पर बिखेर दी। इसके एक क्षण उपरान्त ही विसर्जन पद्यों का उच्चारण पण्डिताचार्य की गम्भीर वाणी में वहाँ गूंज उठा ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि शास्त्रोक्त न कृतं मया । तत्सर्व पूर्णमेवास्तु त्वत्प्रसादाज्जिनेश्वर ॥ आहूता ये पुरा देवा लब्धभागा यथाक्रमम् । ते मयाभ्यचिता भक्त्या सर्वे यान्तु यथास्थितिम॥ अब जाकर जिनदेवन को उस गुल्लिकाधारिणी महामाया का स्मरण हुआ। सिर उठाकर उसकी ओर देखते ही वे अवाक रह गये। गुल्लिका-अज्जी मंच पर नहीं थीं। 'अरे ! अज्जी किधर गयीं ?' १८८ / गोमटेश-गाथा

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