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थीं। चामुण्डराय को आश्वासन देते हए गंगनरेश कह रहे थे—'यह अभिषेक अवश्य पूर्ण होगा महामात्य ! तुम्हारा कोई संकल्प कभी अधूरा नहीं रहा । साधन अपने पास प्रचुर हैं। उनका उपयोग करके उपक्रम करो और अपनी भक्ति का भरोसा रखो।'
इन लोगों के सीढ़ियों के समीप पहुँचते ही सरस्वती का मौन इंगित पाकर, एक क्षण में ही, अभिषेक के लिए प्रासुक दुग्ध से भरा स्वर्णपात्र, स्वयं जिनदेवन वहाँ ले आये, परन्तु नम्रतापूर्वक वृद्धा ने उसे ग्रहण करने का उनका अनुरोध नकार दिया___ 'तुम्हारे कलश से अभिषेक करने का मुझे क्या पुण्य होगा कुमार! घर से लाये हुए इसी स्वल्प दुग्ध से भगवान् के चरणों का अभिषेक करूँ, यही मेरी अभिलाषा है।'
इस बार आगे बढ़कर स्वयं अजितादेवी ने वृद्धा से अनुरोध किया'सो तो ठीक है दीदी ! अपनी गुल्लिका से ही अभिषेक करो, परन्तु अभिषेक तो ऊपर मंच से ही करना चाहिए न ? चरणों के अभिषेक का भी प्रारम्भ तो मस्तक से ही होगा। आओ चलो, ऊपर चलते हैं।' ___ अजितादेवी और सरस्वती, सादर और साग्रह, बाहों का सहारा देती गुल्लिका अज्जी को ऊपर मंच तक ले गयीं। सहसा किसी सुरभित समीर का एक झोंका पूरे वातावरण को मीठो गन्ध से भर गया। यहाँ मुझे भी क्षणेक के लिए, उस अलौकिक सुगन्ध का अनुभव हुआ। सारे वातावरण में एक दिव्यता व्याप्त हो गयी। अक्षीण कलश : अजस्रधारा __ महामात्य और जिनदेवन ने उत्सुकतावश ऊपर जाने के लिए पग बढ़ाये, परन्तु पण्डिताचार्य ने मौन इंगित से उन्हें बरज दिया । मन्त्रमुग्ध होकर उन्होंने मन्त्रोच्चार किया, और वृद्धा ने दोनों हाथों से वह छोटीसी गुल्लिका भगवान् के मस्तक पर उड़ेल दी।
समस्त समुदाय ने देखा-उस छोटी-सी गुल्लिका में से निकलती दुग्ध की धारा गोमटेश के मस्तक पर गिर रही है, और गिरती ही जा रही है। निमिष भर में भगवान् का मस्तक अभिषिक्त हो गया। अब दुग्ध ने भगवान् के वक्ष को अवगाह लिया। वह पहुँच गयी धारा उनके कटि प्रदेश तक । जंघाओं को पार करके यह आयी दुग्ध की धवलता उनके घुटनों तक।
और फिर? फिर निमिष भर के लिए सबके पलक मुंद गये । समय के उस भाग
१८६ / गोमटेश-गाथा