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चरणाभिषेक में ही होता है। मस्तकाभिषेक तो उसकी भूमिका है। आओ, मैं ले चलती हूँ तुम्हें अभिषेक कराने।'
सरस्वती को अन्तस् में कहीं लगा कि उसकी शोध सार्थक हो गयी है। जिसे ढूँढ़ने के लिए वह निकली थी, उसे अनायास ही उसने पा लिया है। उसे विश्वास हो गया कि समस्या का उज्ज्वल समाधान, इसी मलिन परिधान में लिपटा हआ उसके समक्ष प्रकट हआ है। सरस्वती की कुशाग्र बुद्धि ने एक क्षण में ही समझ लिया, कि अंजली भर दुग्धवाली यह गुल्लिका ही, क्षीरसागर का वह अक्षय कलश है, जिसकी महाधारा ने बारम्बार मेरु पर्वत को आप्लावित किया है। सरस्वती मन में आश्वस्त हो गयी कि कि गुल्लिका का यह अल्प दुग्ध, अकेले गोमटेश का नहीं, इस समूचे विन्ध्यगिरि का अभिषेक करने के लिए भी, कम नहीं होगा।' __वर्षों से बिछड़े आत्मीयजन के अचानक मिल जाने पर, तुम लोग जैसा मोह दिखाते हो, ऐसे ही मोहपूर्वक उस वृद्धा का हाथ पकड़कर सरस्वती चलने को हुई, तभी उसे सामने से जिनदेवन आते दिखाई दिये। किंचित् सलज भाव से, मन का उत्साह उजागर करते हुए सरस्वती ने वृद्धा से कहा
'लो, महामात्य के सुपुत्र तो यहीं आ गये अज्जी ! आओ चलो, पण्डिताचार्यजी से अभिषेक मन्त्र पढ़ने की प्रार्थना ये करेंगे, और मैं स्वयं ऊपर ले जाकर तुमसे अभिषेक कराऊँगी।'
'तुम्हारा संसार सुखी हो बेटी।'
दाहिने हाथ को वरद मुद्रा में लाते हुए वृद्धा ने एक साथ दोनों को आशीर्वाद दिया। __घोर अपरिचय की पृष्ठभूमि में, वृद्धा के मुख से जुगल जोड़ी के लिए यह आशीर्वचन सुनकर, सरस्वती का चौंकना स्वाभाविक था। वृद्धा की अलौकिकता पर अब उसे कोई सन्देह नहीं रहा । किसी अज्ञात प्रेरणा से उसका माथा स्वतः नत हो गया। आँचल हाथों में लेकर उसने वृद्धा का चरणस्पर्श कर लिया। ___इस वृद्धा से अभिषेक कराना है, जिनदेवन को इससे अधिक कुछ भी जानने समझने की न इच्छा थी, न समय था। उन दोनों का अनुसरण करते वे वापस मंच की ओर चल पडे।
थोड़ी ही देर में निराश होकर पण्डिताचार्य मंच के पास लौट आये थे। चिन्ता और अनिश्चय का वातावरण वहाँ पूर्ववत् व्याप्त था। इस व्यवधान को धर्म कार्य में उपसर्ग मानकर साधु समुदाय ध्यानस्थ हो गया था। अत्तिमब्बे मीठे शब्दों में अजितादेवी को सांत्वना दे रही
गोमटेश-गाथा | १८५