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४३. गुल्लिका-अज्जी
अपने अनचीन्हे अभ्यागत को ढूंढ़ती हुई सरस्वती पर्वत के दूसरे छोर तक पहुँच गयी। सहसा वहाँ उसकी दृष्टि एक दीन-सी दिखाई देने वाली वृद्धा पर पड़ी। मुख्य पथ के वन्दनवारों से थोड़ा हटकर, एक चट्टान के सहारे, हाथ में वनफल की एक सूखी गुल्लिका लिये हुए, वह अपने आपको छिपाती-सी वहाँ खड़ी थी। सरस्वती ने देखा वृद्धा के तन पर पुराना मलिन-सा परिधान था। तन पर अलंकार प्रायः नहीं थे, पर वृद्धा का मस्तक सुहाग के तिलक से अलंकृत और मुख ऐश्वर्य की आभा से आलोकित था। उसके वेष का यह विरोधाभास सरस्वती की दृष्टि से छिपा नहीं रहा, पर अभी इस सम्बन्ध में किसी जिज्ञासा का प्रकाशन उसे उचित नहीं लगा। समीप जाकर प्रेमपूर्वक उसने वृद्धा से पूछा
'यहाँ क्यों खड़ी हैं अम्मा ! अभिषेक कर लिया क्या ?' ।
'कहाँ बेटी ! वहाँ तक पहुँच ही कहाँ पाती हूँ। अनेक बार वहाँ जाने का जतन किया, पर बार-बार लौटा देते हैं मुझे। ठीक भी तो है, न मेरी देह पर अच्छे वस्त्र हैं, न हाथों में सुन्दर पात्र है। दुग्ध भी तो थोड़ा-सा ही है मेरे पास । सोचती हूँ यहीं एक ओर खड़ी रहँगी, यह समुदाय कम होगा तब हो सकता है मार्ग मिल जाय।
उसी वाणी में वृद्धा ने अपना सबल संकल्प भी सरस्वती पर प्रकट कर दिया—'जाकर एक बार प्रार्थना करूँगी महामात्य से। उनकी आज्ञा मिल गयी तो मेरा भाग्य जग जायेगा। भगवान के मस्तक तक तो मेरा हाथ पहुँच भी नहीं पायेगा, चरणों पर ही चढ़ा दूंगी यह दुग्ध ।'
____'अच्छा बेटी ! भगवान् के चरणों के अभिषेक का भी पुण्य तो होता होगा?' वृद्धा ने अत्यन्त भोलेपन से प्रश्न किया।
'होता है अज्जी ! बहुत होता है। अभिषेक का सच्चा पुण्य तो