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महामात्य सोचते थे कि ऐसी अनुपम प्रतिमा का निर्माण कराने से लोक में उनका जो यश हुआ है, यदि यह अभिषेक अपूर्ण रहता है तो, आज ही वह सारा यश धूमिल पड़ जायेगा। चाहे जितना दुग्ध लाना पड़े, चाहे जितना व्ययसाध्य अनुष्ठान करना पड़े, परन्तु यह अभिषेक पूर्ण होना ही चाहिए।
पण्डिताचार्य विचारते थे कि आज तक कभी उनके किसी अनुष्ठान में कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई। वे समझ नहीं पाते थे कि इस व्यवधान का कारण क्या है ? किस त्रुटि के कारण उन्हें यह कलंक लग रहा है। उनकी किस त्रुटि के कारण यह अनुष्ठान असफल हो रहा है। वे भी अभिषेक के इस अदृश्य व्यवधान से चिन्तित और अधीर हो उठे। उन्हें एक उपाय यह सूझा कि एक बार अन्य जनों को अभिषेक करने का अवसर दिया जाय। सम्भव है केवल महामात्य या उनके कुटुम्बी जनों के लिए ही कोई विघ्न उपस्थित हुआ हो। अन्य जन अभिषेक करेंगे तब यह बाधा दूर भी हो सकती है।
क्षणमात्र में ही जनसमूह में हलचल-सी फैल गयी। अनेक श्रद्धालुजन अभिषेक करने के लिए वहाँ उपस्थित थे। उन्हें अभिषेक करने का निर्देश दिया गया। बड़ी भक्तिपूर्वक, बहुत पुलकित मन होकर, वे सब लोग अभिषेक के लिए आये थे। उनके मन का उत्साह अदम्य था। परन्तु यह विघ्न देखकर वे शंकित हो उठे थे। उन्हें अपनी असफलता की आशंका सताने लगी थी। वहाँ सभी एक दूसरे को मार्ग देकर आगे भेजने को तैयार थे, पर पहले कलश ढारने का साहस कोई जुटा नहीं पा रहा था।
पण्डिताचार्य ने उनमें से अनेकों को नाम ले-लेकर प्रेरित किया, तब किसी प्रकार अभिषेक प्रारम्भ हो सका। अब अनुष्ठान की दिशा बदल गयी थी। कलश लानेवाले हाथ बदल गये थे। परन्तु अदृश्य का वह विधान बदला नहीं था। असंख्य छोटे-बड़े कलशों की धारा के उपरान्त भी, दुग्ध का एक बिन्दु तक भगवान् के घुटनों के नीचे नहीं पहुँच रहा था। वे अयाचित परामर्श
जनसमह इस बाधा को देखकर विचलित-सा हो गया। वहाँ अनेक लोग अनेक प्रकार की बातें करने लगे। किसी ने इस घटना में अनुष्ठान का दोष देखा। किसी ने आयोजन की प्रक्रिया को दोषी ठहराया। जितने मह उतनी बातें होने लगीं। एक सज्जन का मत था
'मातेश्वरी के मन में बाहुबली के दर्शन की अभिलाषा थी। उन्हीं के
गोमटेश-गाथा | १८१