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३. देव- शास्त्र - गुरु की पावन त्रिवेणी
तुम्हारे इतिहास काल के कुछ पूर्व से ही मैं तुम लोगों के लिए आराधना स्थल या धर्मायतन की गरिमा प्राप्त कर चुका था । तुम्हारे पूर्वज, सहस्रों वर्षों से चिक्कवेट्ट की इसी विशाल पीठ पर, देव, शास्त्र और गुरु की उपासना करते रहे हैं ।
मेरे इस परिवेश में अर्हत् सभा का अलौकिक आयोजन आज भी मेरी स्मृति में सजीव है । इतिहास उसका प्रवक्ता नहीं है, क्योंकि इतिहास की परिधि में आनेवाले काल-खण्ड की सीमाएँ संकीर्ण हैं । पर क्या इतने से ही मैं आनन्दानुभूति के उन दुर्लभ क्षणों को विस्मृति के गर्त में डाल दूँ ? नहीं पथिक, यह सम्भव नहीं । वीतराग देव का वह शुभागमन, समवसरण का वह देवोपुनीत संयोजन, क्या कभी विस्मरण करने की बात है । उन क्षणों की आत्मविस्मृत कर जानेवाली देह - पुलक, स्मृतिमात्र से आज भी मुझे रोमांचित कर जाती है । तब यहाँ संचरित हुआ सुरभित पवन, आज तक मुझे सुवासित कर रहा है ।
देव
देवायतन की स्थापना की सुधि करता हूँ तो पाता हूँ कि यहाँ सदैव, मेरी पीठ पर कहीं न कहीं, कोई न कोई अर्चना केन्द्र, शाश्वत प्रतिष्ठित रहा ही है । समय-समय पर तुम लोगों ने उन्हें भिन्न-भिन्न रूपाकार प्रदान किये, एक को विसर्जित कर दूसरे की स्थापना प्रतिष्ठा कर दी, परन्तु उनकी पारम्परिक श्रृंखला कभी भंग नहीं होने दी ।
प्रायः प्रत्येक शताब्दी में तुम्हारे भेजे तक्षक कलाकारों, और साधक स्रष्टाओं की छैनी का कुशल स्पर्श पाकर, मेरे ही पाषाण खण्ड निर्माताओं की कल्पना को आकार देने का उपादान बनते रहे। आज जिन