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मयूर पंखवाली पीछी, शोभायमान थी।
स्वामी चन्द्रगुप्त शरीर से अत्यन्त सुकुमार और प्रकृति से बहुत मदुल थे। उनका राजसी भोगों से परिपुष्ट सुचिक्कण-गौर शरीर, तपस्वी जीवन के कठोर कायक्लेश के कारण श्यामल और रूक्ष हो गया था। वे शरीर के प्रति निर्ममत्व और निरपेक्ष होकर उत्कृष्ट तपाचार के आराधन में संलग्न थे। तब उनकी लोकोत्तर साधना की कीर्ति दूर-दूर तक प्रसारित हो रही थी। उनके दर्शनार्थी श्रावक स्त्री-पुरुषों का यहाँ मेला लगा रहता था। दूर-दूर से आगत मुनि और आचार्य उन यशस्वी तपस्वी की चरण-वन्दना करके अपने को धन्य मानते थे। सुदूर उत्तर से भी प्रायः अनगिनते लोग, सामान्यजन और राजपुरुष भी, उन राजर्षि के दर्शनार्थ आते मैंने देखे हैं। उन लोगों के शीघ्रगामी, सधे हुए अश्वों की पंक्तियाँ, और पशु-लोम से बनाये हुए, विचित्र वर्गाकार वाले वस्त्राभरण, कर्नाटकवासी जनों के लिए कुतूहल की वस्तु होते थे। __ चन्द्रगुप्त मुनिराज की समाधि-साधना भी उनके गुरु भद्रबाह की साधना की तरह, निर्दोष और दृढ़ परिणामों के साथ सम्पन्न हई। भारत भमि के विशालतम साम्राज्य के अधिपति, उस महान् सम्राट ने जीवन के सन्ध्याकाल में समस्त बहिरंग और अंतरंग परिग्रह का त्याग करके, उत्कट आराधनापूर्वक, अपनी पर्याय के विसर्जन को, बड़ी कुशलता से नियोजित किया। जीवन के अन्तिम चरण में, अवश्यम्भावी मरण के सोत्साह वरण को साधनेवाला, उनका वह संयत आचरण सचमुच अनकरण करने योग्य था।
इस प्रकार भगवान् महावीर की परम्परा की दो अनुपम और अन्तिम विभूतियों ने, अपनी साधना द्वारा, इस चन्द्रगिरि को पवित्र किया। समस्त आगम के पारगामी श्रुतज्ञों की शृंखला में जैसे आचार्य भद्रबाह अन्तिम श्रुतकेवली थे, वैसे ही मुकुट उतारकर केशलोंच करने वाले राजभवन से सीधे ही वनगमन करनेवाले, अन्तिम मुकुटधर नरेश थे सम्राट चन्द्रगुप्त। उनके पश्चात् किसी मुकुटबद्ध नरेश ने जिनदीक्षा धारण करने का साहस नहीं दिखाया। ___ इन गुरु-शिष्य की सल्लेखना के उपरान्त, मेरी निराकूल गोद में समाधिमरण का पावन अनुष्ठान सफल करने की भावना, सहस्रों साधुओं का अभीष्ट बनती रही। ऐसी ख्याति हुई इस साधनाधाम के निराकुल वातावरण की, इतनी कीर्ति फैली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के उत्कृष्ट समाधि विधान की, कि शत-शत योजनों से आकर सल्लेखनाकांक्षी यतियों ने मुझे पावनता प्रदान की। नाना प्रकार के साहसपूर्ण प्रत्याख्यान
२६ / गोमटेश-गाथा