Book Title: Gomtesh Gatha
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 193
________________ ३९. मंगल आरती ऊपर पर्वत तक पूरा मार्ग बड़ी-बड़ी ज्योति-शलाकाओं से प्रकाशित था। उनमें तेलपूर्ति के लिए स्थान-स्थान पर सेवक नियुक्त थे । प्रतिमा सामने की ओर भूमि पर अनगिनते ज्वलित दीपों का एक स्वस्तिक बनाया गया था । काष्ट निर्मित ऊँचे-ऊँचे दीपाधारों पर बड़े-बड़े चतुर्मुख दीप सजाकर मूर्ति को प्रकाशित किया गया था । उस रात्रि में चारों ओर दीपावली का - सा मनोरम दृश्य था । सर्वप्रथम सरस्वती ने अपने सुमधुर कण्ठ से आचार्य नेमिचन्द्र महाराज द्वारा प्रातः उच्चरित, गोमटेश स्तुति का गान किया । आचार्यश्री की सहज सुबोध प्राकृत शब्दावली, और इन्द्रवज्रा - सा सहज गेय छन्द, वैसे भी कानों को प्रिय लगनेवाले थे । सरस्वती के सधे हुए कण्ठ का सहारा पाकर उन पद्यों के लय-ताल और निखर उठे । महाकवि के हृदय की कोमलतम अनुभूतियों में से निःसृत पद - छन्दों को, उसने अपने स्वर - सिद्ध कण्ठ के योग से अत्यन्त रसमय बना दिया । वीणा की झंकार से उन छन्दों में मधुरता भरती हुई सरस्वती, साक्षात् सरस्वती ही लगती थी । श्रोताजन मुग्ध भाव से स्तुति का हर छन्द ग्रहण करते, बाहुबली की छवि के साथ उसकी अर्थ संगति बिठाते और छन्द के चतुर्थ चरण तक पहुँचते-पहुँचते भक्ति गंगा में सराबोर होकर उसे दुहरा देते थे । I आरती का आरम्भ स्वयं मातेश्वरी ने किया । अपनी पौत्र वधू से माँगकर हठात् उन्होंने अपने पैरों में घुंघरू बाँधे और दोनों हाथों में आरती लेकर मृदंगम की थाप पर वे नृत्य करने लगीं। एक संगीतज्ञ आरती के छन्दों का लयबद्ध उच्चारण करते, फिर जनसमुदाय के अभ्यासी कण्ठ उसे दोहराते थे । काललदेवी उसी लयताल के अनुसार मुग्ध होकर मंदिर और द्रुतगति से नृत्य कर रहीं थी । उनकी दृष्टि

Loading...

Page Navigation
1 ... 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240