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प्रेमपूर्वक कंधे पर हाथ रखे ही काललदेवी ने उत्तर दिया'तूने क्या कम काम किया है री ! रन्न से कितनी बार तेरी कीर्ति सुन चुकी हूँ | तूने शतशः जैन शास्त्रों की प्रतियाँ कराकर कर्नाटक के घर-घर में उन्हें पहुँचा दिया । सुनती हूँ आठ वर्ष में तैयार होनेवाली धवल, जय-धवल की सौ-सो प्रतियाँ तूने जिनालयों में स्थापित करवायीं । पन्द्रह सौ स्वर्ण प्रतिमाओं का दान तेरे हाथों से हुआ यह क्या सामान्य बात है बेटी ?'
न जाने कब तक यह स्नेह वार्ता चलती, पर सरस्वती ने व्यवधान बनकर ही इसे समाप्त किया ।
‘ऐसे खड़े-खड़े बोलने से तो दोनों थक जाओगी दीदी । घर चलो, सब लोग थके हैं । विश्राम - भोजन की बेला है ।'
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कन्नड़ का रससिद्ध कवि रन्न इस महिलामणि का गुणगान करते कभी थकता नहीं था । उसी से मैंने भी अत्तिमब्बे की कीर्ति सुनी थी ।
चालुक्यराज के सेनापति नागदेव की गुणवती भार्या अत्तिमब्बे, यौवनकाल में ही विधवा हो गयी थी । एक वर्ष का एक बालक ही उसका जीवनाधार था । उसी के पालन-पोषण में उसने समतापूर्वक अपना कालयापन किया। अजितसेन महाराज के उपदेश से धर्म के प्रचार-प्रसार में उसकी रुचि हुई। माता की ओर से दी हुई और पति की छोड़ी हुई कुबेर की-सी सम्पदा की वह स्वामिनी थी । उसने कर्नाटक से अविद्या और अधर्म का निराकरण करने में तथा ज्ञान और धर्म के प्रसार में वह सारी सम्पत्ति लगा दी । उसके अतिशय त्याग की कहानियाँ देश भर में प्रचलित हो गयी थीं ।
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प्रत्येक विवाह के अवसर पर नव-दम्पत्ती को, शान्तिनाथ का एक स्वर्ण-विग्रह, और एक शास्त्र, अत्तिमब्बे का उपहार होता था । सदाचार की प्रतिष्ठा के साथ साथ कम से कम पाँच शास्त्र लिखवाने की वह उन्हें प्रेरणा देती थी । गाँव-गाँव में पाठशाला, कुंआ, धर्मशाला आदि की स्थापना कराती दीन-दुखियों की सेवा करती थी । इसलिए वह 'दानचिन्तामणि' अत्तिमब्बे कहलायी । सबकी आवश्यकताएँ उदारता से पूरी करने के कारण वह 'जंगम कल्पलता' कही गयी । उसके मुख से निसृत हरेक वचन सत्य और सार्थक हो जाता था इसलिए कहा जाता था कि उसे 'वा सिद्ध वर' प्राप्त है ।
अत्तिमब्बे का सतीत्व और जिनेन्द्रभक्ति दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गयी थी । कहा जाता है कि विपत्तिकाल में पुत्र की सहायता के लिए अपनी भक्ति शक्ति से, एक बार क्षण भर के लिए उमड़ती हुई तुंगभद्रा
गोमटेश - गाथा / १७५