Book Title: Gomtesh Gatha
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 206
________________ ४२. महाभिषेक बड़े समारोह से महोत्सव प्रारम्भ हुआ। नर-नारियों का विशाल समूह महाभिषेक देखने के लिए वहाँ एकत्रित था। उस दिन विन्ध्यगिरि की सज्जा दर्शनीय थी। पूरे पर्वत को पत्रझालरों, वल्लरियों, पुष्पों और रंग-रेखाओं से अलंकृत किया गया था। यहाँ से मेरा वह सहोदर एक विशाल नीलाभ सिंहासन-सा लगता था, जिस पर गोमटेश की प्रतिमा अद्भुत प्रभुता के साथ विराजमान दिखाई देती थी। पत्रों, पुष्पों की वह सज्जा उस सिंहासन को, विचित्र वर्णवाले रत्न-झालरों की-सी शोभा प्रदान करती थी। उस सतरंगे परिकर के मध्य में गोमटेश उस दिन कुछ विलक्षण ही सुन्दर लग रहे थे। पूर्वोत्तर कोण से आनेवाली उत्तरायण सूर्य को प्रातः कालीन किरणें, उनके मुखमण्डल को प्रतिक्षण नवीनता देकर दर्शकों की दष्टि को अनिर्वचनीय आनन्द दे रही थीं। उस पर्वत पर से, और यहाँ से भी, अनगिनते लोग हर्ष विभोर होकर मस्तकाभिषेक का वह दुर्लभ दृश्य देख रहे थे। गोमटेश के दोनों पार्श्व भागों में, और पृष्ठ भाग में भी, तीनों ओर से काष्ठफलक बाँध-बाँधकर ऊपर मंच तक सुडौल सीढ़ियाँ बनाई गयी थीं। सीढ़ियों पर अनेक रंगों से चित्रकारी और पुष्पों से उनकी सज्जा की गयी थी। भरे हुए मंगल कलश दर्शकों की दृष्टि में रहें, और रिक्त कलशों पर किसी की दृष्टि न पड़े, इसलिए पार्श्व की सीढ़ियों पर दोनों ओर से कलश लेकर, ऊपर जाने का प्रावधान था और रिक्त कलश लेकर पीछे की ओर नीचे उतरने के लिए मार्ग दिया गया था। महामात्य और अजितादेवी तथा जिनदेवन और सरस्वती पीतपरिधानों में सजे थे। उनके सिर पर रत्नमुकुट पहिनाकर, इस अनुष्ठान

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