Book Title: Gomtesh Gatha
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 197
________________ खनिजों और वनस्पतियों के योग से बनाया गया लेप, बार-बार प्रतिमा पर लगाया तथा नारिकेल की जटाओं और रज्जुओं से, उस लेप के साथ अनेक दिवस तक वे प्रतिमा को चिकनाते रहे । अन्त में नारिकेल के ही खोपरे से उसके एक-एक अवयव को सहस्रों बार घिसने पर पाषाण में यह स्निग्धता प्रकट हुई, यह निखार आया । उसी के कारण आज सहस्र वर्ष उपरान्त भी, तुम्हें यह मूर्ति ऐसी दिखाई देती है, मानो अभी कल ही रूपकार ने इसे गढ़कर सम्पन्न किया हो । कठोर पाषाण पर यह कोमलस्निग्धता लाने के लिए, शतशः कलाकारों ने एक मास से अधिक काल तक अहर्निश जैसा परिश्रम किया, वैसा ही सराहनीय रूप और वैसी ही स्थायी चमक, इस मूर्ति में प्रकट करके उनका प्रयास सफल हुआ। उनका श्रम सार्थक हो गया । त्यागद ब्रह्मदेव ब्रह्मदेव दक्षिण भारत के जनमानस के देवता हैं । प्रायः प्रत्येक देवस्थान के समक्ष शासन देवता के रूप में इनकी स्थापना होती है । ब्रह्मदेव की मूर्तियाँ एक ऊँचे स्तम्भ पर अश्वारोही के रूप में बनायी जाती हैं । इनके हाथों में फल और चाबुक तथा पैरों में पादुकाएँ रहती हैं। कर्नाटक में प्रायः सभी धर्मों और सम्प्रदायों में इन्हें एक जैसा सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त है । एक निरन्तर जागरूक और सतत सन्नद्ध यक्ष के रूप में ब्रह्मदेव की कल्पना की गयी है । जन्म से मरण तक जो थक कर बैठना जानता ही नहीं; भोजन-पान, निद्रा और विश्राम, सब कुछ खड़े ही खड़े जो कर लेता है, जलथल में सर्वत्र जिसकी गति है, जो अत्यन्त बलिष्ठ और चपल है, ऐसे वाहन पर, अश्व पर बैठे हुए यक्षराज, आठों प्रहर, तीसों दिन, बारहों मास, अपने आराध्य की सेवा के लिए और उनके भक्तों की सहायता के लिए तत्पर रहते हैं, ऐसी मान्यता है । उनकी पादुकाएँ पवित्रता का प्रतीक हैं । उनके एक हाथ में साधर्मियों के लिए उनकी सद्भावना और उदारता का संकेत देता हुआ फल है । दूसरे हाथ में चाबुक धार्मिकजनों के लिए अभय प्रदान करता है, तथा धर्मद्रोहियों को दण्डित करने की उनकी शक्ति और संकल्प का परिचायक होता है । पण्डिताचार्य के परामर्श के अनुसार, लोकभावना का आदर करते हुए, और धार्मिक समन्वय की भावना को सम्मान देते हुए, चामुण्डराय विन्ध्यगिरि पर, बाहुबली प्रतिमा के सामने कुछ नीचे की ओर एक उत्तुंग और सुन्दर स्तम्भ पर ब्रह्मदेव की मूर्ति स्थापित करायी । इस गोमटेश - गाथा / १६६

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