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पूरी प्रतिमा का तक्षण किया। इस प्रकार उस चिह्न का परिवद्धित रूप तुम्हें सदा दृष्टव्य रहेगा।
तक्षण का कार्य बड़ी तीव्रगति से प्रारम्भ हुआ। रूपकार के निर्देशन में विन्ध्यगिरि के उस उन्नतोदर भाग को चारों ओर से छीलकर एक सीधे ऊँचे और मोटे स्तम्भ का-सा रूप प्रदान किया गया। हजारों-लाखों प्रस्तर-खण्डों के रूप में उस पर्वत की काट-काटकर सुगम और सुभग बनाया गया। तक्षकों द्वारा जैसे-जैसे पर्वत की एक-एक परत विदीर्ण करके उसको नीचा और समतल किया जाता था, वैसे ही वैसे उस चिह्नांकित स्थूल स्तम्भ को स्वतः ऊँचाई प्राप्त होती जाती थी। काटकर निकाला गया समस्त पाषाण पाश्ववती खन्दकों में एकत्र होता जा रहा था।
पर्वत के स्थल तक्षण के उपरान्त चारों ओर से काष्ठाधार बाँधकर उन पर काष्ठ फलक बिछाये गये, जिनके सहारे अब उस पाषाण-स्तम्भ को आकृति प्रदान करने का कार्य प्रारम्भ हुआ। छोटी पटलियों पर अंकित बाहुबली की रेखानुकृति देख देखकर, उसके अंग-सौष्ठव के प्रमाण के अनुसार उनकी माप करके, पूरे स्तम्भ को लाल रंग की आड़ी खड़ी अनेक सूत्र-रेखाओं से अंकित किया गया। उसी अनुरूप उसमें ग्रीवा, वक्ष, भुजाएँ, नितम्ब और पाद भाग उत्कीर्ण कर लिये गये। जिनदेवन अपनी ही देखरेख में यह सारा कार्य कराते थे। चामुण्डराय और आचार्य महाराज कभी-कभी आकर प्रगति का निरीक्षण करते और आवश्यक परामर्श देते जाते थे। इस प्रकार थोड़े ही दिनों में प्रतिमा का स्थूल आकार उस शिलाखण्ड में प्रकट हो गया।
गोमटेश-गाथा | ५३