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प्रवर्तित होने लगता है । इसी प्रकार पहले काल के उपरान्त उसी क्रम से पुनः पहला, फिर दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ और छठा काल आता है ।
प्रथम से छठे तक, अवनति की ओर चलनेवाली काल चक्र की गति को ‘अवसर्पिणी’ काल कहते हैं । छठे से पहले की ओर उसके उत्कर्षगामी प्रवाह को 'उत्सर्पिणी काल' कहा गया है ।
भोगभूमि की सुविधाएँ
उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल की ऐसी यह शृंखला, इस जगत् में अनादि-अनन्त प्रवहमान है । इनमें सदैव पहला, दूसरा और तीसरा काल, भोगभूमि के वातावरण से व्याप्त रहता है । तब जीवन के लिए कोई संघर्ष, आनेवाले कल की कोई चिन्ता और संतति का कोई निर्वाह, इन कालखण्डों में, किसी को भी करना नहीं पड़ता । एकमात्र युगल संतति को जन्म देते ही माता-पिता का देहावसान हो जाता है । जनसंख्या स्वतः सीमित रहती है । उस व्यवस्था में दस प्रकार के कल्प - वृक्षों से मानव की समस्त आवश्यकताएँ, इच्छा करने मात्र से पूरी हो जाती हैं । प्रकाश, जल, वस्त्राभरण, आभूषण, भोजन-पान, सभी कुछ यथा समय वांछित मात्रा में इन कल्पवृक्षों से सबको प्राप्त हो जाता है । प्राप्ति के लिए संघर्ष और संग्रह की कोई चिन्ता किसी को करनी ही नहीं पड़ती । रोग, शोक और अकाल-मरण कहीं सुनाई नहीं देता ।
कर्मभूमि के अभिशाप
अवसर्पिणी के प्रवाह में चौथा काल प्रारम्भ होते ही इस पृथ्वी पर 'कर्मभूमि' का उदय होता है । उस समय कल्पवृक्षों से वस्तुओं की उपfor बाधित हो जाती है । अब मनुष्यों को कर्म के सहारे जीवन-निर्वाह करना पड़ता है। उन्हें 'असि' की सहायता से अपनी और अपने परिकर की रक्षा करनी पड़ती है । 'मसि' के द्वारा वे ज्ञान-विज्ञान और ललित कलाओं की साधना करते हैं । 'कृषि' उनकी जीविका का आधार बनती है और 'वाणिज्य' के द्वारा वे अर्जित वस्तुओं का आवश्यकतानुसार आदान-प्रदान और संग्रह करने लगते हैं । 'विद्या' का अभ्यास करके वे छन्द, व्याकरण, इतिवृत्त आदि के सहारे पठन-पाठन, शिक्षण आदि का अम्यास करते हैं तथा 'शिल्प' की साधना से मूर्ति, चित्र, भवन, देवालय आदि का निर्माण करते हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में मानव समाज विभाजित हो जाता है । परिग्रह की हीनाधिकता
गोमटेश-गाथा / ५७
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