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उसकी नेत्रज्योति ही चली जाय । तब तो स्वर्ण - अर्जन का यह स्रोत बन्द हो जायेगा । तब क्या यही ठीक नहीं कि उसे अनदेखे अनागत पर भरोसा न करके, अवसर का लाभ उठाकर, आज, अभी, जितनी शीघ्र हो सके, जैसे भी हो सके, जितना अधिक हो सके, स्वर्ण-संग्रह कर ही लेना चाहिए।'
रूपकार बार-बार अपने विवेक को जागृत करके, अपने अस्थिर मन की निर्मूल आशंकाओं पर हँसता । बार-बार काम में मन लगाने का प्रयास करता, परन्तु हर बार अपने आपसे हार जाता था । आज उसकी छैनी के आघात से जो भी पाषाणखण्ड धरती पर गिरता, वह उसे पाषाण लगता ही नहीं, स्वर्णखण्ड ही दिखाई देता था । उसकी दृष्टि प्रतिमा पर से हटकर गिरते हुए पाषाणखण्ड का पीछा करती । मन ही मन वह उसके भार का अनुमान लगाता । वह प्रतिपल सचेत और सतर्क था कि कहीं उसका झराया हुआ कोई पाषाण किसी प्रकार खो न जाय । तुला पर चढ़ने से रह न जाय । एकाधिक बार ऊँचे काष्ठफलक से नीचे उतरकर उसने झरे हुए पाषाणखण्डों को स्वतः बटोरकर, वस्त्र में बाँधकर सुरक्षित किया। सामान्यतः यह कार्य जिनदेवन द्वारा नियुक्त लेखापाल किया करता था ।
एकबार अकारण ही रूपकार नीचे कटक तक गया । अपनी कुटी में जाकर उसने भीतर से द्वार बन्द करके, अपना स्वर्ण-भण्डार घड़ी भर तक देखा । उसका बहुविधि स्पर्श किया। फिर आकर वह काम में मन लगाने का यत्न करने लगा, पर सफलता उसे नहीं मिली ।
अब बाहुबली की छवि रूपकार की कल्पना से तिरोहित हो गयी थी । बार-बार प्रयास करने पर भी उसे उस आकृति का दर्शन नहीं हो पा रहा था। जितने बार भी उसने वह आकार ढूँढ़ने का प्रयत्न किया, हर बार वहाँ उसे स्वर्ण का एक पर्वत ही दिखाई दिया। ऐसा स्वर्ण पर्वत जिसे छील - छीलकर घर ले जाना ही जीवन की सार्थकता है । कल्पना के वातायन से झाँककर, उस पाषाणगर्भित प्रतिमा को देख पाने के लिए, अब वह अन्धे के समान असहाय हो गया था । एकदम निरुपाय और निरीह । हारकर आज उसने समय से पूर्व ही विश्राम ले लिया ।
रात को रूपकार ने पुनः स्वप्न देखा । सोने का एक बड़ा ढेर है, पहाड़-सा ऊँचा और विशाल । उसी स्वर्णगिरि पर वह खड़ा है । चारों ओर लोग जयकारों से और तालियों से उसका अभिनन्दन कर रहे हैं । सहसा उसने मुड़कर विन्ध्यगिरि की ओर देखा है । वह अवाक् रह गया देखकर कि विन्ध्यगिरि के शिखर पर उसके अनगढ़ बाहुबली आज कहीं
गोमटेश - गाथा / १२६