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एक दिन मातेश्वरी काललदेवी ने अम्मा से कहा
'बेटे को कह बोलकर भोजन तो समय पर कराना चाहिए। कूबेला में भोजन करने से उसका स्वास्थ्य नहीं गिरेगा? कल मैं भोजन लेकर जाऊँगी। देखती हूँ कैसे समय पर अन्न ग्रहण नहीं करता।' ___ मातेश्वरी का संकल्प सुनकर अम्मा कुछ भी बोली नहीं। मुस्करा कर रह गयीं। दूसरे दिन मातेश्वरी के निर्देश पर विशेष भोजन तैयार किया गया। भोजन असामान्य नहीं था पर अलोना था। सब कुछ बिना नमक का । एक सेविका को साथ लेकर मातेश्वरी और अम्मा उस दिन पर्वत पर गयीं। सेविका तथाअम्मा को एक चट्टान की आड़ में छोड़कर मातेश्वरी ने भोजन का थाल हाथ में लिया, दूसरे हाथ में जलपात्र उठाया और अम्मा प्रतिदिन जहाँ प्रतीक्षा करती बैठती थीं, उसी स्थान पर वे जा बैठी। ___ मातेश्वरी को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। थोड़ी ही देर में रूपकार मंच से उतरकर आया और हाथ धोकर नियत स्थान पर बैठ गया। भोजन प्रारम्भ करने पर रूपकार नमक माँगेगा तभी अपनी बात कह देंगी, ऐसा विचार कर मातेश्वरी ने भोजन का थाल और जल-पात्र सामने सरका दिया। विचारमग्न रूपकार ने सिर झुकाकर जो भोजन प्रारम्भ किया सो अन्तिम ग्रास तक उदरस्थ करके, जल ग्रहण कर लेने पर ही उसका सिर ऊपर उठा। बिना देखे, बिना बोले, दूर से ही मातेश्वरी के चरणों में प्रणाम करके वह तत्काल मंच पर लौट गया। ___काललदेवी ने अनुभव कर लिया कि अपनी धुन में संलग्न रूपकार को तन बदन की भी कुछ सुधि नहीं है। भोजन में स्वाद के परिवर्तन का तो उसे पता चला ही नहीं, परन्तु भोजन लानेवाली अम्मा के स्थान पर उनकी स्वयं की उपस्थिति को भी उसने लक्ष्य नहीं किया है । अम्मा को बधाई देती हुईं, उनके कलाकार बेटे की एकाग्रता की सराहना करती हईं, मातेश्वरी अत्यन्त आश्वस्त मन से वापस लौट आयीं।
बहत दिनों की साधना के उपरान्त तक्षण का कार्य समाप्ति की ओर पहँचा। प्रतिमा की ग्रीवा के आसपास, काष्ठफलकों का जो मंच बना था, अनिश उसी पर रह कर अपनी कृति के सबसे कठिन, सबसे संवेदनशील और सबसे महत्वपूर्ण भाग की अवतारणा में अब रूपकार संलग्न हुआ। मूर्ति के शीर्ष पर केश-गुच्छकों ने आकार ग्रहण कर लिया था। उनके वृत्तों में स्निग्धता और मदुता की झलक दिखाई देने लगी थी। कर्ण और ग्रीवा के पृष्ठ भाग का समापन भी हो चुका था। अब चिबुक कपोल, ओष्ठ, नासा और नेत्रों को ही संवारना शेष था। देव प्रतिमा १४८ / गोमटेश-गाथा