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में दोहरा कर कीर्तन करने लगे थे। 'तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं' की लयबद्ध घ्वनि 'द्रत' से अब 'द्रततर' होती जा रही थी। लय में आरोह और अवरोह का समावेश करने के लिए, किसी लयकार ने, स्तुति की उस पंक्ति को द्विविध तोड़ लिया था। 'पणमामि णिच्चं तं गोमटेसं' के रूप में उठाकर वे उसे आरोह को ऊंचाइयों पर ले जाते और 'तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं' रूप में अवरोह पर लाकर, बार-बार दोहराने लगते थे। कीर्तन करता हुआ वह जनसमूह, नाचता गाता भगवान् की परिक्रमा कर रहा था। कोई जान नहीं पाया कि कब, आचार्य की शिष्य-मण्डली के बालयति भी, उस समूह परिक्रमा में सम्मिलित हो गये।
वन पुष्पों का पुष्कल संकलन वहाँ पूर्व से था ही । भाण्डारिक ने स्वर्ण और रजत के कृत्रिम पुष्पों के भी ढेर लगा दिये थे। लोग बड़ी देर तक अंजलि भर-भरकर भगवान् के चरणों पर, पुष्प बरसाते और गाते-नाचते उनकी परिक्रमा करते रहे। शायद ही कोई वहाँ ऐसा रहा हो जिसका तन और मन, इस प्रभु-कीर्तन में थिरक न उठा हो। बस, हम दो ही उस दुर्लभ नृत्य से वंचित रह गये थे। एक तुम्हारे आचार्य नेमिचन्द्र, और दूसरा मैं, चन्द्रगिरि । आचार्य तो इसलिए तुम लोगों का साथ देने में असमर्थ थे कि प्रथम दष्टि में ही उनका तन-मन, उनका सर्वस्व, भगवान के चरणों में बन्धक ही हो गया था। वहाँ होकर भी, वे वहाँ थे कहाँ ? और पथिक ! मैं, यह विचार कर स्थिर बना रहा, कि मेरा नृत्य, जड़ और चेतन किसी को कभी अच्छा नहीं लगता।
१५८ / गोमटेश-गाथा