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३७. मन की मनुहारें
बाहुबली की मनोहारी छवि का दर्शन पाकर महामात्य हर्षातिरेक में भावाभिभूत थे । प्रतिमा पर प्रथम दृष्टि पड़ते ही उन्होंने अपने कण्ठ की मणिमाला उतारकर रूपकार के गले में बलात् पहनायी थी और उसे भुजाओं में कसकर गले से लगा लिया, इतनी तो उन्हें सुधि थी, पश्चात् वहाँ जो भी हो रहा था, महामात्य उसके बेसुध साक्षी मात्र थे । उनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी । वे बहुत प्रयत्न करके भी गोमटेश स्तुति का उच्चार तक करने में, एक बार भी सफल नहीं हुए । उनका समूचा ही तन-मन, स्तुति पद की लय से, उसकी ताल से, और उसकी भावना से एकाकार हो रहा था, पर उनका कण्ठ हर्षातिरेक से अवरुद्ध हो गया था ।
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जिनदेवन ने लक्ष्य किया कि काललदेवी प्रारम्भ से अब तक अचल और अवाक् होकर भगवान् की सुन्दर छवि का दर्शन कर रही हैं । एक ओर वार्धक्य की क्षीण दृष्टि और दूसरी ओर प्रतिमा की इतनी उत्तुंग मुखछवि, अतः उन्हें बार-बार ग्रीवा उठाकर, असामान्य होकर ऊपर जोहना पड़ता है । आगे बढ़कर उस बलिष्ठ युवक ने दादी को उठाकर अपने विशाल कन्धे पर बिठा लिया। फिर तो जिनदेवन ने आगे पीछे, चारों ओर, निकट से और दूर से, उन्हें भगवान् का बहुविधि दर्शन कराया । काललदेवी का चिर-दर्शनाभिलाषी मन यद्यपि तृप्त तो नहीं हुआ, पर पौत्र के शरीर पर भार बाधा का विचार आते ही, तृप्ति का झूठा आश्वासन देकर ही, वे हठात् उसके कँधे से उतर आयीं ।
सौरभ को यह कौतुक करणीय लगा । ठुमककर पिता का स्कन्धारोहण करने में वह चपल बालक सफल भी हो गया, पर जननी का एक छोटा-सा बंकिम भृकुटि निर्देष उसी क्षण उसे धरती पर उतार लाया ।