Book Title: Gomtesh Gatha
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 189
________________ ही एक पाँखुरी पर, थोड़ा-सा काजल एकत्र किया और आंचल की ओट करके, उसे भगवान् के चरणों में छोटी अंगुली की कोर पर लगा दिया। सरस्वती के मन में कुतूहल हुआ। पूजन आरती का समापन करके वह प्रौढ़ा समूह में विलीन हो, इसके पूर्व ही, सरस्वती ने आदरपूर्वक उसे टेर लिया। काजल के प्रति जिज्ञासा करने पर बड़े सहज भाव से उस ममतामयी ने उत्तर दिया 'देखती नहीं हो बहूरानी, कितना सुन्दर है भगवान् का रूप। कैसी प्रशंसा कर रहे हैं लोग उनकी छवि की। क्या पता किसकी कैसी दृष्टि हो, कभी कुदष्टि भी तो लग सकती है अपने बाहुबली को। इसलिए मैंने काजल का दिठौना लगा दिया है उनके चरणों पर। मैं तो अशीषती हूँ बेटी, लाखों बरस की आयु मिले हमारे गोमटेश को।' __ और तब सरस्वती ने भी उस महिला के साथ आंचल का खुंट हाथ में लेकर गोमटेश के चरणों से अपना माथा लगा दिया। स्तवन समाप्त हुए बहुत समय हो गया था। पूरा उपस्थित समुदाय अब कीर्तन और परिक्रमा में संलग्न था। किसी को कोई अन्य चिन्ता वहाँ नहीं थी। क्षुधा, पिपासा, सब जैसे वे लोग भूल ही गये थे। वहाँ से जाने की बात किसी के मन में उठ ही नहीं रही थी। ___ आचार्य महाराज की दर्शन-समाधि अभी तक टूटी नहीं थी। वे उसी अविराम तन्मयता के साथ टकटकी बाँध भगवान् की ओर देख रहे थे। कीर्तन का कोलाहल भी उनकी तल्लीनता भंग नहीं कर पा रहा था। वे उस प्रतिमा के आकर्षण में उलझ गये लगते थे। उपवास का संकल्प करके, आज के लिए चर्या की चिन्ता से तो उन्होंने पहले ही मुक्ति पा ली थी। अब सामायिक की बेला का भी उल्लंघन हो रहा था। इतने दिन के संयमी जीवन में पहली बार यह व्यतिक्रम हो रहा था, पर इसकी ओर भी उनका ध्यान नहीं था। आचार्यश्री का माथा बार-बार बाहुबली स्वामी के चरणों में झुक जाने को सन्नद्ध होता था, पर नेत्रों की टकटकी टूटना नहीं चाहती थी। मस्तक नमन का आकांक्षी था, पर आँखें दर्शनाभिलाषा की पूर्ति करने में तल्लीन थीं। दृष्टि को निमिषमात्र के लिए भी वहाँ से हटाना बड़ा कठिन, तथा कष्टकर लग रहा था। बड़े द्वन्द्व के उपरान्त, मस्तिष्क ने उनके भावुक मन पर विजय पायी। आचार्य ने मुख-मण्डल पर से दृष्टि हटाकर, भगवान् के चरणों में अपना माथा झुका दिया। दो क्षण बाद ही उठकर अत्यन्त शान्त भाव से, ईर्यापथ शोधन करते हुए, वे करुणायतन, मेरी ओर आगमनशील दिखाई दिये। गोमटेश-गाथा | १६१

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