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परम दिगम्बर, ईति भीति से रहित, विशुद्धि-बिहारी । नाग समूहों से आवृत, फिर भी थिर मुद्रा धारी।। निर्भय, निर्विकल्प, प्रतिमा-योगी की छवि मन लाऊँ ।
गोमटेश के श्रीचरणों में बार-बार सिर नाऊँ । भली-भाँति उन कर्मावरण निवारण श्रीचरणों का अवलोकन करके, अब नेमिचन्द्र महाराज ने दृष्टि ऊपर उठायी। अब उन्होंने उस विलक्षण विग्रह का समग्र दर्शन किया। अभी तक भगवान् की मुख छवि को हृदयंगम करके, उन्होंने क्रमशः उनके चरणों तक, दृष्टि निक्षेप ही किया था। अब पहली बार, एक साथ अपने आराध्य का आपाद-मस्तक भुवनमोहन रूप उन्हें उपलब्ध हुआ। वे अपलक, अनवरत उस वीतरागी रूप सुधा का पान करते हुए, मन ही मन उन महायोगी का गुणगान करते जा रहे थे। उस समय की उनकी भक्ति-गंगा से जो थोड़ी-सी बूंदें, शब्दों में छलक सकीं, केवल उतनी ही आज तुम्हारे लिए मेरे पास शेष हैं
आसां ण जं पोक्खदि सच्छदिदि, सोक्खे ण वंछा हयदोसमूलं। विराय-भावं भरहे विसल्लं,
तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं ॥७॥ समकित वंत, स्वच्छ मति, आशा, कांक्षा, शोक विहीना। भरत भ्रात में शल्य मिटाकर तुमने मुनि पद लीना॥ वीतराग निष्कांक्षित प्रभु के शरण चरण की जाऊँ। गोमटेश के श्रीचरणों में बार-बार सिर नाऊँ।
और फिर भक्ति के इसी आवेश में बाहुबली भगवान् का ममतामोह रहित, आधियों, व्याधियों और उपाधियों से मुक्त, वर्षोपवासी रूप चिन्तन में आने पर, स्तुति के अन्तिम छन्द की अवतारणा हुई--
उपाहिमुत्तं धण-धामवज्जियं, सुसम्मजुत्तं मय-मोहहारयं । वस्सेय-पज्जंतमुववास जुत्तं,
तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं ॥८॥ आधि, व्याधि, सोपाधि, परिग्रह वर्जित धन्य जिनेशा ! भावी का भय, धरा-धाम का, मोह नहीं लवलेशा॥ बारह-मासी उपवासी की कीर्ति निरन्तर गाऊँ । गोमटेश के श्रीचरणों में बार-बार सिर नाऊँ। स्तुति समाप्त कर महाराज मौन हो गये। वे अभी भी अपने गोमटेश को अपलक ही निहार रहे थे। स्तुति का अन्तिम चरण सब लोग समूह
गोमटेश-गाथा / १५७