________________
दर्शन कर लेना चाहती थीं । आचार्यश्री की मर्यादा के कारण, कुछ दूर तक तो वे पीछे-पीछे चलती रहीं, पर उनका धैर्य शीघ्र समाप्त हो गया । कुछ चपल बालकों ने सामान्य पथ से परे, एक सीधा मार्ग, ऊपर तक जाने के लिए ढूँढ़ लिया था । सहसा काललदेवी उसी पथ पर बढ़ चलीं । उस सर्वथा अनुमानित, अनिश्चित और अप्रयुक्त पथ की असुविधाओं का आतंक, उनकी गति में तनिक भी बाधक नहीं हुआ । सौरभ का मन तो पहले ही उस अनगढ़ पथ पर चलने के लिए ललचा रहा था । दौड़कर दादी अम्मा से आगे निकल जाने में उसने जरा भी बिलम्ब नहीं किया ।
अजितादेवी ने मातेश्वरी को सहारा देने के लिए आगे बढ़ने का प्रयास किया, परन्तु चार डग चलने पर ही उन्हें अनुभव हो गया कि मृग या मर्कट की-सी कुशलता के बिना, इस असामान्य पथ की यात्रा सम्भव नहीं है। ऐसी कुशलता उनके पास थी नहीं और काललदेवी तब तक दृष्टि से ओझल भी हो चुकी थीं ।
थोड़े ही काल में यह यात्री संघ उस पवित्र स्थल पर पहुँच गया । पण्डिताचार्य के निर्देश में भगवान् की प्रथम वन्दना की पूर्वयोजना वहाँ सम्पन्न की जा चुकी थी । शिल्पियों के लिए बाँधे गये काष्ठाधार और काष्ठफलकों का मंच हटाया जा चुका था । वस्त्रवितान के स्थान पर एक झीना-सा पीत-पट अब भगवान् के शरीर को आवृत करता झूल
1
रहा था ।
प्रतिमा के आस-पास पुष्पों और पत्र - मालाओं की सज्जा की गयी थी । भूमि पर दूर-दूर तक कनक और रोली के चौक पूरे गये थे। चारों कोनों पर आम्र-पत्र और श्रीफल संयुक्त मंगलघट स्थापित थे । केसरिया चीनांशुक में आवृत उन स्वर्णघटों पर मणिमालाएँ, शोभित थीं। सामने ही एक स्थान पर भाँति-भाँति के वनपुष्पों का बड़ा ढेर था और कंचन आरती प्रज्ज्वलित रखी थी ।
सहस्रों नर-नारी प्रातः से ही आकर वहाँ एकत्रित थे । चहुँओर उत्सुक दर्शनार्थियों के समूह में जो एक हलचल सी दिखाई दे रही थी, आचार्य महाराज के पधारते ही, वह स्वतः समाप्त हो गयी । वातावरण एकदम शान्त हो गया। रह-रहकर बाहुबली भगवान् का, और आचार्य नेमिचन्द्र का जयघोष अवश्य, उस जनसमूह में गूंज जाता था ।
हाथों में पिच्छी साधकर आचार्य महाराज ने महामन्त्र का जाप किया | मंगल मन्त्र णमोकर आचार्य श्री को परम इष्ट था । वे बड़ी निष्ठा और विश्वासपूर्वक इसका जप किया करते थे । जप पूरा होने पर उन्होंने १५२ / गोमटेश - गाथा