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दोनों हाथ जोड़कर मूर्ति को नमस्कार किया । तभी रूपकार ने पट खींच दिया । अब भगवान् बाहुबली की वह विशाल मनोहर मूर्ति अपनी पूरी समग्रता के साथ भक्तों के सामने प्रकट थी । मूर्ति क्या थी मानो बाहुबली ही साक्षात् वहाँ प्रकट हो गये थे। एक बार 'जय गोमटेश' का उद्घोष करके आचार्य ने सम्मुख खड़े हुए रूपकार की ओर लक्ष्य किया --
'धन्य है शिल्पी, इन महाप्रभु का आवाहन करनेवाली तुम्हारी कला धन्य है । हमारी कल्पना से भी अधिक भव्यता भर दी है तुमने इस विग्रह में। इस महान् कृति के साथ उसके कलाकार का नाम यश भी अमरता प्राप्त करेगा ।'
'इसमें मेरा कुछ नहीं है महाराज, इसके कृतिकार तो आप हैं । मैंने तो मात्र आपकी आज्ञा और निर्देशों का पालन किया है।' रूपकार ने आचार्य के चरणों का स्पर्श किया। धर्म - वृद्धि के लिए आचार्य की पिच्छी शिल्पी के मस्तक का स्पर्श कर रही थी ।
प्रतिमा को एकटक निहारते हुए सभी उपस्थित जन अब मन्त्र- मुन्ध मौन खड़े थे। आराध्य का ऐसा अद्भुत साक्षात्कार था वह, कि जिसने भी उनसे दृष्टि मिलायी वह स्वतः खो गया । बालक और वृद्ध, स्त्री और पुरुष, साधु और गृहस्थ, रागी और विरागी सब, ठगे-ठगे से, उस अशेष सौन्दर्य राशि को अपलक निहारते खड़े थे । वहाँ उनकी एकाग्रता देखकर लगता था, मानो समयचक्र ही थोड़ी देर के लिए स्थिर हो गया हो ।
गोमटेश - गाथा / १५३