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था। परन्तु सभी अंगों को अन्तिम स्पर्श उसी की छेनी ने प्रदान किये थे। मुख भाग का सम्पूर्ण तक्षण वह स्वयं ही कर रहा था। स्थूलाकार निर्मित करने के उपरान्त अब उसने क्रमशः एक-एक उपांग को अन्तिम रूप देना प्रारम्भ किया।
बाहुबली के आनन पर भावसृष्टि की अवतारणा, अब रूपकार का लक्ष्य था। अब वह तक्षण में कम और चिन्तन में अधिक संलग्न दिखाई देता था। कभी उसकी कल्पना में ध्यानस्थ आचार्यश्री की आत्मलीन मुद्रा होती, कभी जिनचन्द्र की सानुपातिक देहयष्ठि का वह ध्यान करता, और कभी सौरभ के निर्दोष, भोले, सस्मित मुख की कल्पना करता था। कभी यव या अंगुल को उन्मान बनाकर उन उपांगों की माप करता। कभी प्रतिमा के मुख पर केसर का लेप कराता, कभी जल से प्रक्षाल कराता, जिससे वहाँ उसे अनेक भंगिमाएँ उदित और विलीन होती दिखाई देती थीं।
रजत फलकों और विशाल दर्पणों की सहायता से, सूर्य का परावर्तित प्रकाश प्रतिमा के भिन्न-भिन्न अंगों पर डालकर, अनेक बार रूपकार उसकी छवि का आकलन करता था। कई बार कृत्रिम प्रकाश से भी यह प्रयोग दोहराया गया। आचार्य महाराज और महामात्य के परिकर के समक्ष भी इस परीक्षण के द्वारा प्रतिमा के सौष्ठव और सौन्दर्य का विश्लेषण किया गया। कभी-कभी तो रूपकार, भिन्न कोणों से उस छवि को, आत्मविस्मृत-सा, दो-दो घड़ी तक निहारता ही बैठा रहता था। ऐसा लगता था जैसे कोई साधक गुह्य साधना का आश्रय लेकर, किसी मन्त्र की सिद्धि कर रहा हो।
सचमुच उन दिनों बड़ी एकरस तन्मयता के साथ रूपकार अपने साध्य की साधना में दत्तचित्त था। पारिश्रमिक के त्याग से दूर-दूर तक उसकी कीर्ति फैल गयी थी। लोग उसकी निष्ठा पर मुग्ध थे। उसके धैर्य की प्रशंसा और उसके सफल काम होने की कामना करते थे। जनमानस में उसकी मान मर्यादा बढ़ गयी थी।
कला की अवतारणा के लिए रूपकार की एकाग्रता और उसकी समर्पित साधना सचमुच दर्शनीय थी। भोजन-पान, शयन और विश्राम सब कुछ भूलकर, वह अपने स्रजन में तन मन से संलग्न हो गया था। अम्मा प्रतिदिन समय पर उसका भोजन लेकर जातीं परन्तु प्रायः नीचे बैठी-बैठी थक जाती थीं। कभी दोपहर के पश्चात्, और कभी सूर्यास्त के पूर्व सायंकाल ही रूपकार मंच से नीचे उतरता और जो सामने आता वहीं भोजन, निरपेक्ष भाव से ग्रहण कर लेता।
गोमटेश-गाथा | १४७