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समय आया है । सुनो भद्र ! हम इस प्रकार उस वाक्य को संशोधित करते हैं—
'ऐसे लोकोत्तर कार्य के शिल्पी भी लोकोत्तर ही होना चाहिए ।' 'लोक तुम्हें कुछ नहीं कहेगा । पारिश्रमिक प्रदान करनेवाला अपना प्रचुर कोष लेकर बैठा है, किन्तु ग्रहण करनेवाला उससे बचना चाहता है । इसमें दोनों की महानता है । शिल्पी के मन में अनासक्ति की भावना का उदय इस महान् कार्य के लिए शुभ संकेत है । लोभ से पंकिल हाथों के द्वारा सचमुच यह कार्य साध्य नहीं था ।'
'रूपकार, तुम्हारा संकल्प सराहनीय है । जिस भाव-भंगिमा को पाषाण पर अंकित करना चाहते हो, अपने हृदय में उसका उतारना परम आवश्यक है। लोभ का उत्सर्ग करके तुमने अपने-आपको पवित्र किया है | अब निश्चय ही तुम्हारे हाथ से वास्तविक वीतराग छवि का निर्माण होगा ।'
'देश में अर्हन्त भगवन्तों की सहस्रों प्रतिमाएँ हैं । उनके निर्माता सहस्रों ही कलाकार इतिहास की वेदिका पर बिखरे हुए हैं । महामात्य ने इन सबसे विलग और विलक्षण, एक अभूतपूर्व जिनबिम्ब वनवाने का संकल्प किया है । हमने उस अनोखी प्रतिमा की एक कल्पना की है । ऐसी प्रतिमा, जैसी किसी ने न कहीं देखी, न कभी सुनी। ऐसे महान् निर्माण के लिए शिल्पी को भी महान् बनना पड़ेगा। हम आश्वस्त हैं कि • आज तुमने उस महानता के लिए प्रथम प्रयास किया है ।'
'परिग्रह ने सदा सबको आकुलता ही दी है । तुमने परिग्रह को सीमित करने का संकल्प करके, भगवान् महावीर के बताये मार्ग का अनुसरण किया है । अपने सुख स्वार्थ के लिए किसी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुँचाना । असत्य का सहारा नहीं लेना । अनीति और अनाचार से संग्रह नहीं करना । मन को वासनाओं से बचाना और आवश्यकता से अधिक परिग्रह की आकांक्षा नहीं करना । यही पाँच प्रारम्भिक नियम, यही 'पंच अणुव्रत' महावीर ने गृहस्थों के लिए बताये थे । इनका संकल्प तुम्हारे जीवन को उत्कर्ष प्रदान करेगा । इतनी पवित्र भावनाओं के साथ तुम्हारे द्वारा किया गया निर्माण अवश्य ही लोकोत्तर होगा ।'
महाराज का आशीर्वाद पाकर रूपकार उत्साहित हुआ । आगे बढ़कर उसने श्रीचरणों में नमन किया । चामुण्डराय के प्रति भी उसने विनय पूर्वक अभिवादन किया । भाव-विभोर महामात्य कुछ बोले नहीं, केवल पीठ थपथपाकर उन्होंने रूपकार को स्नेह दिया ।
गोमटेश - गाथा / १४५